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________________ 194 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग मेरा अनिष्ट किया है, उसने मेरा ऐसा कर दिया। कोई भी आदमी यह देखने को तैयार नहीं है कि उसने भी कुछ किया है। सारा का सारा दोष हम दूसरों के सिर पर मंढ देते हैं-'पत्थर कितने उबड़-खाबड़ हैं, मुझे ठोकर लग गयी।' अपनी गलती से, अपने प्रमाद से ठोकर लगी, इस बात को हम स्वीकार नहीं करेंगे, किन्तु कहेंगे कि पत्थर ठीक स्थान पर नहीं थे, इसलिए ठोकर लगी। दरवाजा छोटा है, इसलिए सिर में चोट लगी किन्तु मैंने दरवाजे को छोटा समझकर भी अपने को छोटा नहीं किया, सिकोड़ा नहीं, इसलिए चोट लगी, ऐसा कोई नहीं सोचता । उसने मेरे साथ ऐसा किया, वैसा किया। उसने मेरे मित्र को बिगाड़ डाला। उसने उसे भ्रमित कर दिया। हम सारा दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। दूसरों में दोष देखते हैं और दूसरों को दोषी मानकर अपने आपको बचा लेते हैं। परन्तु जिसने सत्य को खोजा है, जो सत्य का खोजी है, वह दूसरों पर आरोप नहीं लगाता। वह इस बात का अनुभव करता है कि उसका अपना ही प्रमाद बहुत सारी विकृतियां उत्पन्न कर रहा है। इसलिए वह प्रयत्न में रहेगा कि वह अप्रमत्त रह सके, जागृत रह सके, सतत जागरूक रह सके। शत्रुता का इतना ही अर्थ नहीं है कि दूसरे से द्वेष रहे और मित्रता का अर्थ इतना ही नहीं है कि दूसरे से प्रेम रहे । शत्रुता का अर्थ है--अपने कर्तव्य को भुलाकर दूसरे के कर्त्तव्य में बुराइयां देखना । यह शत्रुता है एक प्रकार की। पत्थर के प्रति भी हमारी शत्रुता हो जाती है। हम पत्थर को भी गालियां देने लग जाते हैं। पूरा बर्तन पानी से भरा था। एक हाथ से उठाया वह फूट गया। अब इस सचाई को नहीं खोजा कि पानी से भरा हुआ पात्र एक हाथ से उठाया जाएगा तो छूटेगा और फूटेगा। इसको हम नहीं सोचेंगे। हम कहेंगे--पात्र इतना कच्चा था कि नहीं फूटता तो और क्या होता ? यह परिणाम तो अवश्यंभावी था। इस प्रकार अपने कर्त्तव्य को बचाने की जो बात है वह भी एक प्रकार से दूसरों के प्रति शत्रुता है । दूसरी वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, मित्रता का अर्थ केवल प्रेम ही नहीं है। प्रेम भी मित्रता है। किन्तु वास्तव में मित्रता है--सबके अस्तित्व को स्वीकार करना, जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकार करना, किसी को किसी पर आरोपित न करना। यह है मित्रता । यह अनाशातना है । जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण शब्द है--आशातना । जीव की आशातना होती है । अजीव की आशातना होती है । मकान की आशातना होती है । आशातना द्वेष है, शत्रुता है । अनाशातना मैत्री है । हमारा यह व्यापक दृष्टिकोण है कि हम सत्य को खोजें और सबके साथ मैत्री करें । अर्थात् जो जिसका जितना है उसे स्वीकार करें सहज भाव से और किसी पर कुछ आरोपित न करें। यह सचाई है। इसे हम पकड़ें। इस सचाई को पकड़े बिना कोई साधना नहीं कर सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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