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________________ कायोत्सर्ग 177 आसन और शक्ति-संवर्धन संस्कार-शुद्धि के साथ संयम एवं शक्ति-संवर्धन के लिए आसन का अभ्यास किया जाता है। स्थिति एवं गति आसन के दो स्वरूप हैं। इससे संस्कारों का विलय होता है। ध्यान के लिए "स्थित-आसन" उपयोगी है। इसमें लम्बे समय तक ठहरा जा सकता है। पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, सुखासन एवं कायोत्सर्ग ये ध्यान-आसन हैं । स्थित-आसन से मांसपेशियों को विश्राम मिलता है। विश्राम की यह स्थिति कायोत्सर्ग का एक प्रकार है। गति वाले आसनों में मांसपेशियों की पारस्परिक गति से शरीर को संतुलित बनाया जाता है। ये पेशियां जोड़ों को व्यवस्थित बनाती हैं तथा गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध संतुलन बनाये रखती हैं। इससे शक्ति का संवर्धन होता है। गत्यात्मक आसनों में शरीर के अवयवों को गतिशील करना होता है। यह गति अत्यन्त धीमी तथा सावधानीपूर्वक की जाती है। इन्हें करते समय शरीर की बदलती हुई पेशियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। गति के पश्चात् शरीर को कुछ समय तक शिथिल छोड़ देना आवश्यक है, जिससे विजातीय तत्त्व का निरसन एवं शरीर में शक्ति संचय हो सके। - प्रारंभ में आसन के अभ्यास से पेशियों पर स्वल्प-सा तनाव आता है, पर क्रमशः अभ्यास के द्वारा आसन की सहज स्थिति तक पहुंचा जा सकता है! उस समय तनाव का अनुभव नहीं होता है। केवल पेशियों या किसी अवयव को एक आकार में ले आना ही आसन का उद्देश्य नहीं है । आसन के साथ शरीर को शिथिल छोड़ना भी आवश्यक है, क्योंकि उससे ही स्नायु-संस्थान में ठहरे हुए विजातीय तत्त्वों का शोधन होता है। योग-सूत्र में उल्लिखित "प्रयत्न-शैथिल्य" यही अवस्था है, इससे शरीर शिथिल होकर तनाव-मुक्त हो जाता है। आसन-विजय साधना का आधार है। उसके अभाव में व्यक्ति दीर्घ ध्यान, कायोत्सर्ग, भावना-योग आदि का अभ्यास कैसे कर सकता है ? आसनों का प्रयोग केवल शारीरिक ही नहीं आध्यात्मिक भी है। आसनों के अभ्यास से न केवल कायसंयम ही होता है, अपितु वाक् और मन का भी संयम होता है। इससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक तनाव-मुक्ति सहज होती है। आसनों के नियमित अभ्यास से काया अन्तरंग यात्रा के स्पयुक्त बन जाती है। बाह्य-क्लेश एवं परिषह-विजय की क्षमता उत्पन्न होने लगती है। आसन और स्वास्थ्य आसन शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं आध्यात्मिक विकास के लिए उपयुक्त भूमिका का निर्माण करता है। आसन अस्वस्थ व्यक्ति के लिए उपयोगी है, तो स्वस्थ व्यक्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान युग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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