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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग स्वभाव है। वासना-विजय या वासना की अमात्रा हित है। स्वभाव की दृष्टि से विकार अकर्तव्य है और हित की दृष्टि से स्वभाव अकर्तव्य है। शरीर-स्वभाव की दृष्टि से अति मात्रा में खाना अकर्तव्य है, पर आवश्यक व उपयोगी खाना अकर्तव्य नहीं है। परन्तु हित की दृष्टि से परिमित खाना भी अकर्तव्य हो जाता है। दूसरे के लिए पहले का त्याग (उत्तरवर्ती के लिए पूर्ववर्ती का त्याग) कर्तव्य की विशेष प्रेरणा से ही होता है। व्यक्ति में विवेक-जागरण का उत्कर्ष होता है, तभी वह स्वभाव के लिए विकार का और हित के लिए स्वभाव का त्याग करता है।
जिस ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा हो, वही उसका कर्तव्य माना जाए तो अकर्तव्य जैसा कुछ शेष ही नहीं रहता। शोषण, संग्रह और सत्ता की
ओर मनुष्य की जैसी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा होती है, वैसी असंग्रह के प्रति नहीं होती। किन्तु यह विकार के मोहक आवरण से ढंकी हुई स्वाभाविक प्रेरणा है, इसलिए यह अकर्तव्य है। वैध ढंग से व्यापार, परिग्रह और अधिकार-प्राप्ति की ओर जो स्वाभाविक प्रेरणा होती है, उसके पीछे आवश्यकता या उपयोगिता की सामान्य भावना होती है, इसलिए वह सामान्य कर्तव्य है। अपरिग्रह और असत्ता समाज के वर्तमान मानस से स्वाभाविक प्रेरणा-लभ्य नहीं है, इसलिए ये प्रधान कर्तव्य हैं।
अणुव्रती समाज-व्यवस्था में- अकर्तव्य का वर्जन, सामान्य कर्तव्य का नियन्त्रण और प्रधान कर्तव्य का विकास- ये तीन भूमिकाएं होंगी। शासनमुक्त या शासनयुक्त ?
अहिंसक समाज शासन मुक्त होगा या शासनयुक्त ? यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता है। मेरे सामने जब यह प्रश्न आता है तब मेरी दृष्टि एक शास्त्रीय वर्णन की ओर चली जाती है। उसमें निरूपित है कि इसी विश्व में एक कल्पातीत नाम का लोक है। वहां दिव्य पुरुष रहते हैं। वे ऋद्धि और ऐश्वर्य से समान हैं, आयु और बल की दृष्टि से समान हैं। उनमें न कोई सेवक है और न कोई स्वामी- वे सब 'अहमिन्द्र' हैं। उनका समाज सोलह आना साम्यवादी और सोलह आना शासनमुक्त है।
इस वर्णन को आप कल्पना माने या यथार्थ, यह आपकी इच्छा पर निर्भर है। यदि यह कल्पना भी हो तो इसका मूल्य कम नहीं है। साम्यनिष्ठ और शासनमुक्त समाज की रचना की जा सकती है, इसमें यह संभावना प्रस्फुट हुई है।
साम्यनिष्ठ और शासनमुक्त समाज-रचना का आधारभूत तत्त्व हैमानसिक विकास। यह मानसिक विकास क्रोध, अभिमान, माया और लोभ के
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