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________________ अहिंसक समाज- संरचना अवगणना भी हो जाती है। आत्मिक- नियन्त्रण दंड- प्रेरित नहीं होता। वह व्यक्ति का अपना आन्तरिक विवेक-जागरण है। इसलिए उसमें बाहर-भीतर का द्वैध नहीं होता । प्रकाश या तिमिर, परिषद् या एकान्त में बुराई से बचने की समवृत्ति हो जाती है, यही आध्यात्मिक भय है । यह भय रखने वाला बाहर की किसी भी शक्ति ने नहीं डरता, इसलिए सही माने में वह अभय है। अहिंसक समाज-व्यवस्था में नियन्त्रण का प्रेरक हेतु आत्म- पतन का भय है। उसमें वही व्यवस्था या विधि उचित मानी जाती है, जो आत्म-पतनकारक नहीं होती। आवश्यकता पूर्ति का क्रम हिंसा को उत्तेजना देने वाला नहीं होता । वासना उसे उत्तेजित करती है । आवश्यकता और वासना का पृथक्करण करना ही अहिंसक समाज-व्यवस्था का लक्ष्य है । - आवश्यकताएं अधिक रहे, वैसी दशा में नैतिक निष्ठा बन नहीं सकती। उसके बिना अहिंसा केवल औपचारिक हो जाती है। इसलिए आवश्यकताएं कम करना भी अहिंसक समाज-व्यवस्था का लक्ष्य है । 167 अधिक आवश्यकताएं निर्वाह मूलक नहीं होतीं । वे इच्छा पर नियन्त्रण न कर सकने की स्थिति में होती हैं। यह रोग का मूल है। इच्छा पर नियन्त्रण नहीं होता है, तब आवश्यकताएं बढ़ती हैं। जब आवश्यकताएं बढ़ती हैं, नैतिक निष्ठा कम होती है। नैतिक निष्ठा कम होती है, अहिंसा औपचारिक बन जाती है । औपचारिक अहिंसा से वह शान्ति नहीं मिलती, जो उससे मिलनी चाहिए। इसलिए अहिंसक समाज-व्यवस्था का सबसे पहला या प्रधान लक्ष्य है- इच्छा का नियन्त्रण | Jain Education International अहिंसक समाज-व्यवस्था : तीन भूमिकाएं I खाना स्वाभाविक लगता है। नहीं खाना स्वाभाविक नहीं लगता । खाने का समय नहीं खाने के समय की अपेक्षा बहुत थोड़ा होता है। खाना शरीर की जरूरत है, इसलिए प्राणी खाता है। जरूरत पूरी होने पर नहीं खाता, यह उसका हित है, इसलिए वह खाना छोड़ देता है - खाने पर नियन्त्रण कर लेता है। नियन्त्रण-शक्ति कम होती है । वह पेटू बन जाता है, जरूरत पूरी हो जाने पर भी खाता ही रहता है। यह विकार पक्ष है । परिमित करना - नहीं खाना, भूख सहना - यह हित पक्ष है। समाज की सारी वृत्तियां इन तीनों पक्षों में समा जाती हैं। कानून या विधि-विधान व्यक्ति को विकार -पक्ष से स्वाभाव - पक्ष की ओर अग्रसर करता है । व्रत स्वभाव-पक्ष से हित-पक्ष की ओर जाने की साधना है या यूं कहना चाहिए - विकार और स्वभाव का विरोध होता है, तब सामाजिक विधि का निर्माण होता है तथा स्वभाव और हित में विरोध होता है तब आध्यात्मिक, नैतिक या व्रतों की साधना अपेक्षित होती है । विकार, स्वभाव और हित की परिभाषा की संज्ञा में अति मात्रा, मात्रा और अमात्रा कहा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप वासना की अति मात्रा - -पूर्ति विकार है। वासना की परिमित मात्रा - पूर्ति शरीर का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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