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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग
हिंसक समाज और अहिंसक समाज
इन दोनों को परिभाषा में बांधना, इनके बीच भेद-रेखा खींचना सरल कार्य नहीं है, फिर भी व्यवहार-संचालन के लिए ऐसा करना ही होगा। जिस समाज में अर्थ
और काम की प्रधानता और आचार-धर्म की गौणता या अवहेलना होती है वह हिंसक समाज कहलाता है। जिस समाज में अर्थ, काम और धर्म- तीनों की संतुलित उपासना होती है, वह अहिंसक समाज कहलाता है। हिंसक समाज में अर्थ और सत्ता अहिंसा पर आवरण डाल देते हैं। अहिंसक समाज में अर्थ और सत्ता अहिंसा से प्रभावित होते हैं। पुरुषार्थ का सन्तुलन
भारतीय समाजशास्त्रियों ने पुरुषार्थ चतुष्टयी का प्रतिपादन किया था, जैसेअर्थ, काम, धर्म और मोक्ष । अर्थ समाज के भौतिक विकास का प्रमुख साधन है। काम उसकी प्रेरणा है। अर्थ और काम का एक युगल है। धर्म समाज के आध्यात्मिक विकास का मुख्य साधन है। मोक्ष उसकी प्रेरणा है। धर्म और मोक्ष का एक युगल है। प्रथम युगल हमारी भौतिक कक्षा का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा हमारी आध्यात्मिक कक्षा का। दोनों युगलों का अपना-अपना स्थान और अपना-अपना महत्त्व है।
सोमदेव सूरी ने एक प्रश्न उपस्थित किया कि पुरुषार्थ चतुष्टयी में से किस पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व देना चाहिए ? इस प्रश्न का मूल्य आज भी कम नहीं हुआ है। उन्होंने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया, वह आज भी मूल्यवान् है। उन्होंने कहा-- इनका संतुलित सेवन करना चाहिए। किसी एक का अति सेवन करने से वह स्वयं की हानि करता है और दूसरों को भी पीड़ा पहुंचाता है। "एको ह्यत्यासेवितोधर्मार्थकामानां आत्मानमितरौ च पीडयति।"
अर्थ की अति का तात्पर्य है- काम और धर्म की क्षति । काम की अति का तात्पर्य है- अर्थ और धर्म की क्षति । धर्म की अति का तात्पर्य है- अर्थ और काम की क्षति । समाज को इन सबकी अपेक्षा है, इसलिए सामाजिक भूमिका में किसी एक को सर्वोच्च आसन नहीं दिया जा सकता।
ऐसा अनुभव हो रहा है कि वर्तमान समाज ने अर्थ को अतिरिक्त मूल्य दिया है। महामात्य कौटिल्य का प्रसिद्ध सूत्र है- 'अर्थ एवं प्रधानमिति कौटिल्यम्'। कौटिल्य अर्थ को ही प्रधान मानता है। इस अर्थ की प्रधानता से आज का समाज हिंसा के चक्रव्यूह में फंस गया है।
हिंसक समाज में ये तत्त्व फलते-फूलते हैं : 1. अर्थ और सत्ता का केन्द्रीकरण। 2. स्वार्थ का उन्मुक्त प्रयोग।
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