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________________ 163 अहिंसक समाज- संरचना अप्रामाणिकता का अन्त नहीं किया जा सकता । आत्म-तुला का संस्कार मोह से दबा रहता है, तभी व्यक्ति दूसरों का दमन, शोषण, उत्पीडन करता है, उन्हें मारता है, सताता है, हानि पहुंचाता है। जो दूसरों में अपनी जैसी ही अनुभूति देखने लग जाये वह फिर किसी को न मार सकता है, न सता सकता है और न लूट सकता है। जातीय और राष्ट्रीय समानता की भावना के कारण कई राष्ट्रों का नैतिक बल बहुत ऊंचा है। बाहरी समानता का भाव भी इतना फल ला सकता है, तब भला आन्तरिक समता की वृत्ति के महान् परिणाम के बारे में कैसे संदेह किया जाये ? आत्मिक समानता की वृत्ति का उदय होने पर परिवार, जाति आदि के बाहरी भेद और भौगोलिक आदि कृत्रिम भेद-रेखाएं ही नहीं मिटतीं, उनका उन्माद भी मिट जाता है। उपयोगिता-पूरक भेद के रहने पर भी संताप बढ़ने का अवकाश नहीं रहता। 7.6. अहिंसक समाज-संरचना की संभावना अहिंसक समाज और हिंसक समाज- ये दोनों सापेक्ष शब्द हैं। कोई भी समाज ऐसा नहीं हो सकता, केवल हिंसा या अहिंसा के आधार पर चल सके। जीवन-निर्वाह के लिए हिंसा करनी पड़ती है। अपनी और अपने व्यक्तियों तथा वस्तुओं की सुरक्षा के लिए हिंसा की बाध्यता आती है। इस स्थिति में विशुद्ध अहिंसक समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है ? __समाज की रचना अहिंसा के आधार पर हुई है। यदि मनुष्य हिंसक जानवरों की भांति एक-दूसरे को खाने दौड़ते तो समाज का निर्माण ही नहीं होता। एक-दूसरे के हितों में बाधा न डालने का समझौता सामाजिक जीवन का सुदृढ़ स्तम्भ है। अतः विशुद्ध हिंसक समाज की भी कल्पना नहीं की जा सकती। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है- समाज हिंसा और अहिंसा दोनों के योग से चलता है। कोरी अहिंसा के बल पर वह चल नहीं पाता और कोरी हिंसा के बल पर वह टिक नहीं पाता। इस दुनिया में वही समाज अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकता है, जो शक्तिशाली है। शक्ति के स्रोत तीन हैं- अर्थ, सत्ता और धर्म। परिभाषा अर्थ और सत्ता- दोनों हिंसा के आधार पर चलते हैं और जीवन की प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। धर्म का आधार है अहिंसा । वह जीवन को उच्चता प्रदान करता है। समाज-रचना के मूल में अर्थ और धर्म दोनों हैं। पर सामाजिक व्यक्ति को अर्थ जितना अनिवार्य लगता है, उतना धर्म नहीं लगता। उसका प्रथम आकर्षण अर्थ के प्रति, दूसरा सत्ता के और तीसरा धर्म के प्रति है। इसलिए अर्थ और सत्ता के पास जितना शक्तिसंचय है, उतना धर्म के पास नहीं है। इस परिस्थिति में अहिंसक समाज की रचना का प्रश्न बहुत उलझनें उत्पन्न कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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