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________________ 162 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग संग्रह तथा छोटा उद्योग और सीमित संग्रह। उद्योग के केन्द्रीकरण से अर्थतन्त्र विकृत होता है । यह व्यावहारिक दोष है। उसका आध्यात्मिक दोष है- भोगवृद्धि। भोग के लिए प्रचुर परिग्रह चाहिए और उसके लिए बड़ा उद्योग । यह क्रम जीवन के दोनों, भौतिक और आध्यात्मिक, पक्षों को जटिल बनाने वाला है। उद्योग के विकेन्द्रीकरण या अल्पीकरण का आधार अल्प-भोग है । अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा भोग-त्याग या संयम है। इसीलिए यह आध्यात्मिक है। भारत का मानस चिरकाल से आध्यात्मिक रहा है। भारतीय लोग जो शान्तिप्रिय हैं, उसका कारण उनकी आध्यात्मिक परम्परा है। आर्थिक साम्य सुख-सुविधा के साधन प्रस्तुत कर सकता है। आध्यात्मिक साम्य शांति या मानसिक-सन्तुलन का साधन है। आत्म-तुला का विस्तार व्रत नहीं दीखते, व्रती का व्यवहार दीखता है। जो क्रूर नहीं है, उचित मात्रा से अधिक संग्रह नहीं करता है, अपने पड़ोसी या सम्बन्धित व्यक्ति से अनुचित व्यवहार नहीं करता है, अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व नहीं देता है, अपनी सुखसुविधा और प्रतिष्ठा के लिए दूसरों की हीनता नहीं चाहता है, दूसरों के बुद्धि-दौर्बल्य, विवशता से अनुचित लाभ नहीं उठाता है- थोड़े में नैतिकता का मूल्यांकन करते हुए अपने आप पर नियन्त्रण रखता है, ये वृत्तियां ही अणुव्रती होने का स्वयंभू प्रमाण हैं। व्रतों की साधना के बिना उनका स्वीकारमात्र इष्ट फल नहीं लाता। पहली मंजिल में केवल वस्तु का त्याग होता है। अन्तिम मंजिल में वासना भी छूट जाती है। वस्तुसंग्रह के संस्कार भी मिट जाते हैं। व्यक्ति संस्कारों का पुतला होता है। उसमें सबसे अधिक घने संस्कार अपनी सुख-सुविधा के होते हैं, जिनका स्वार्थ-वृत्ति में पूर्ण आकलन हो जाता है। पदार्थ-वृत्ति के संस्कार स्वार्थ से कम होते हैं। पदार्थ की भी कई भूमिकाएं हैं- परिवार, जाति, समाज, प्रान्त और राष्ट्र, फिर मनुष्य और फिर प्राणी-जगत्। इनमें क्रमशः व्यापकता है। व्यक्ति का स्व जितना विशाल बनता है, उतना ही वह स्वयं विशाल बन जाता है। यह आत्मौपम्य-बुद्धि या आत्म-तुला का विस्तारक्षेत्र है। पहले-पहल वह अपने पारिवारिक जनों को अपने समान समझने लगा। फिर उसने क्रमशः अपनी जाति, समाज, प्रान्त और राष्ट्र के व्यक्तियों को अपने समान माना। आगे जाकर मानव-मानव भाई-भाई का स्वर गूंजा। अन्तिम चरण में 'प्राणीमात्र समान हैं,' यह बुद्धि में समा गया। ___समाज में आत्मौपम्य बुद्धिवाद फैला हुआ है, पर आत्मौपम्य बुद्धि से फलित होने वाले स्वार्थ-त्याग के व्रत की साधना नहीं है। ज्ञान का आवरण दूर हुआ है, किन्तु मोह नहीं छूटा है। यथार्थ ज्ञान मोह के रहते हुए क्रियात्मक नहीं बनता, इसलिए एक कदम और आगे बढ़ाना होगा। जैसे अज्ञान को मिटाने का प्रयत्न किया, वैसे मोह को उखाड़ फेंकने की साधना करनी होगी। ऐसा किए बिना अन्याय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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