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________________ 161 अहिंसक समाज- संरचना पर स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। तर्क सही है। वैज्ञानिक साम्यवाद के द्वारा समाज की अर्थव्यवस्था में जो परिवर्तन आया है, वह अपरिग्रह के उपदेश से नहीं आ सका है। इसका कारण दोनों का भूमिका भेद है। साम्यवाद का उद्देश्य है- व्यक्ति की आत्मा का परिशोधन या पदार्थ संग्रह की मूर्छा का उन्मूलन। इनकी प्रक्रिया भी एक नहीं है। साम्यवादी अर्थव्यवस्था राज्य-शक्ति के द्वारा होती है और आत्मा का परिशोधन व्यक्ति के हृदय-परिवर्तन से होता है। अर्थव्यवस्था सामाजिक हो सकती है और आत्मा का शोधन वैयक्तिक ही होता है। संक्षेप में कहा जाये तो अपरिग्रह भोग-त्याग का प्रेरक है और साम्यवाद भोग की संतुलित व्यवस्था का प्रेरक।अपरिग्रह की एक लम्बी परम्परा है, जिसे मान्य कर लाखों-करोड़ों व्यक्ति आकिंचन्य का व्रत ले चुके हैं और उसका धागा आज भी टूय नहीं है।साम्यवाद ने पूर्ण असंग्रह की ओर किसी को प्रेरित किया हो, ऐसा नहीं लगता। _ अर्थव्यवस्था के परिष्कार में साम्यवाद या उसके पार्यों को छूती हुई दूसरी जनतन्त्र-प्रणालियां सफल न हुई हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु इनके द्वारा मानव की आवेगात्मक वृत्तियां परिष्कृत हुई हों, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। वृत्तियों का परिष्कार पदार्थ-संग्रह को अनिष्टकर मानने पर ही हो सकता है। अध्यात्मवाद इसी दिशा का नाम है। ___संग्रह का मूल भोग-वृत्ति में है। समाज की जितनी व्यवस्थाएं हैं, वे मात्रा-भेद से भोग-वृत्ति के परिष्कार हैं। अर्थ-तन्त्र उसका साधन है। अध्यात्मवाद का मूल त्याग में है। संग्रह-मात्र पाप है, भले ही फिर वह वैयक्तिक हो या सामाजिक। जितना परिग्रह उतना बन्धन, जितना बन्धन उतना मोह और जितना मोह उतनी मिथ्या धाराणाएं, यह एक क्रम है, जो मनुष्य में भटकने की तर्क-बुद्धि पैदा करता है। ___अर्थ-तंत्र की परिक्रमा करने वाले सारे वाद भौतिक विकास को वैज्ञानिक और आत्मिक विकास को अवैज्ञानिक मानकर चल रहे हैं। परिष्कृत अर्थव्यवस्था ने भी संघर्ष की दिशा बदली हो, ऐसा नहीं लगता। विकास को मापा जाता हैपदार्थ से, शस्त्र से और सेना से। सामाजिक प्राणियों के लिए सामाजिक-विकास अपेक्षित नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। यह भी सच है- अपरिग्रह से समाज का भौतिक विकास नहीं होता। वह आत्मा के विकास का पथ है। सामाजिक जीवन के लिए भौतिक पक्ष और उसकी समृद्धि के लिए परिग्रह आवश्यक माना जाता रहा है। परिग्रह इच्छा है, पदार्थ नहीं । इच्छा जुड़ती है, वह परिग्रह बन जाता है । इच्छा नियंत्रण किया जा सकता है, पदार्थ का नहीं। सामाजिक प्राणियों के लिए अपरिग्रह का अर्थ हैइच्छा-परिमाण । जीवन-यापन के दो विकल्प हैं- महा-आरम्भ और महा-परिग्रह तथा अल्पारम्भ और अल्प-परिग्रह। आज की भाषा में बड़ा उद्योग और अपार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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