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________________ 160 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग थे, सहज भाव से विकेन्द्रित स्थिति थी। संग्रह के साधन सुलभ नहीं थे, सहज भाव से विकेन्द्रित स्थिति थी। वाष्प-युग ने यन्त्र-युग का रूप लिया। वर्तमान युग यंत्र युग है। इस युग में यातायात के साधन वेगवान बने और बनते जा रहे हैं। विश्व सिमट गया। यन्त्रों द्वारा कार्य होने लगा। कार्य करने की क्षमता मनुष्यों से हटकर मशीनों में आ गई। पूंजी का संग्रह सुलभ हो गया। व्यक्ति-व्यक्ति के पास जो सम्पत्ति थी, वह कुछ ही व्यक्तियों के पास चली गई। सहज ही दो वर्ग बन गये- पूंजीपति और मजदूर। पहले बड़े नगर कम थे, गांव अधिक। मिलों ने गांवों को खाली किया। नगरों की आबादी बढ़ गई। हजारों मजदूर एक साथ काम करने लगे। इस परिस्थिति से उन्हें मिलने, संगठित होने और वर्ग बनाने का अवसर मिला। वर्ग-संघर्ष का बीज जड़ पकड़ गया। पूंजीवाद का परिणाम है- बेकारी और उत्पादन की कृत्रिम आवश्यकता। मनुष्य का काम यन्त्र करने लगे तब हजारों का जीवन साधन एक व्यक्ति के पास आ गया। एक धनी और हजारों बेकार हो गए। संघर्ष की जड़ मजबूत हो गई। वही आगे जा साम्यवाद के रूप में फलित हुई। पुराने पूंजीपतियों की धारणा यह थी कि यह परम्परा इसी प्रकार चलती रहेगी। पूंजीपति और मजदूर इसी प्रकार बने रहेंगे। मार्क्स ने इस दृष्टिकोण से भिन्न विचार प्रस्तुत किया। वह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद कहलाता है। उसके अनुसार यह विश्व परिवर्तनशील है। मूलावस्था में विरोधी तत्त्व समवेत रहते हैं। जिस समय जिसकी प्रबलता होती है, उस समय वह व्यक्त हो जाता है। एक के बाद दूसरी अवस्था आती है, दूसरी के बाद तीसरी। दूसरी अवस्था पहली का परिणाम और तीसरी विपरिणाम का विपरिणाम होती है। यह क्रम चलता रहता है। पहले पूंजीवाद था, बेकारी बढ़ी, शोषण हुआ। शोषण से क्षोभ उत्पन्न हुआ- पूंजीवाद का ढांचा लड़खड़ाने लगा। प्रतिक्रिया के रूप में साम्यवाद को जन्म मिला। आर्थिक दृष्टि से साम्यवाद का स्वरूप उत्पादन और वितरण में समाया हुआ है। इन पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो- यही है साम्यवाद का आर्थिक दृष्टिकोण। कुछ पुराने दार्शनिकों ने कहा- सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व न हो। किन्तु सम्पत्ति का वितरण कैसे किया जाये, यह उन्होंने नहीं बतलाया। इसलिए आज के चिन्तक उसे दार्शनिक साम्यवाद कहते हैं। मार्क्स ने सम्पत्ति के वितरण को व्यवस्थित पद्धति बतलायी। इसलिए उसका साम्यवाद वैज्ञानिक साम्यवाद कहलाता है। उसने एक सीमा तक सम्पत्ति के वैयक्तिक प्रभुत्व को राष्ट्रीय प्रभुत्व के रूप में बदल दिया। अणुव्रत का अभियान वैयक्तिकता से राष्ट्रीयता की ओर नहीं है। वह असंग्रह की ओर है। यह आर्थिक समस्या का समाधान नहीं है, किन्तु अर्थ के प्रति होने वाले आकर्षण को तोड़ने की प्रक्रिया है। लोग कहते हैं- अपरिग्रह का उपदेश हजारों वर्षों से चल रहा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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