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________________ अहिंसक समाज- संरचना हमारा धर्म नैतिकता-प्रधान और राजनीति यथार्थपरक हो तो राष्ट्रीय एकता की समस्या सद्यः समाहित हो सकती है। हिन्दुतान में राष्ट्रीय व्यक्तित्वों की अपेक्षा, प्रान्तीय व्यक्तित्व अधिक पनपते हैं। इसका कारण स्पष्ट है। विशाल दृष्टिकोण वाले लोग कम हैं, जो राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में प्रान्तीय हितों पर विचार करें। इस सारी समस्या पर मूल से ही विचार करना जरूरी है। 159 हिन्दुस्तानी बच्चों में बचपन से ही राष्ट्र से सम्प्रदाय और जाति की, सम्प्रदाय और जाति से परिवार की और परिवार से अपने आपको अधिक महत्त्व देने की मनोवृत्ति पनपती है, यही संस्कार उनमें भरा जाता है। आज शिक्षा का दायित्व सरकार ने ले रखा है। क्या वह इस संस्कार को उलटने की दिशा प्रस्तुत नहीं कर सकती ? प्रत्येक शिक्षा - संस्थान सामाजिक संगठन और सम्प्रदाय विद्यार्थी के सामने यह सूत्र प्रस्तुत करें। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र बड़ा है। राष्ट्र का हित घटित होता है तो सबके हित घटित होते हैं । उसका हित विघटित होता है तो सबके हित विघटित होते हैं । व्यक्ति की निष्ठा को व्यापक आधार देना ही समस्या का समाधान है। ऐसा किए बिना इस द्रौपदी के चीर को कभी नहीं समेटा जा सकता । 7.5 आध्यात्मिक समतावाद 'अनुत्तरं साम्यमुपेति योगी'- योगी अनुत्तर साम्य को पाता है । साम्य का प्रयोग बहुत ही प्राचीन काल से चलता आ रहा है। जैनों की भाषा में अहिंसा और समता एक है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा - प्रशंसा और मानअपमान में जो सम रहे, वही अहिंसा की आराधना कर सकता है। राग-द्वेष आवेगात्मक वृत्तियां हैं। इनसे परे रहने का जो भाव है- मध्यस्थता है, वही साम्य है। गीता में 'समत्व' को योग कहा है। साम्यवाद आज के दलित-मानस का प्रिय शब्द है । कुछ लोग साम्य वाद से घबराते भी हैं। दिल्ली में आचार्यश्री से एक व्यक्ति ने पूछा- क्या भारतवर्ष में साम्यवाद आएगा ? आचार्यश्री ने कहा- 'आप बुलायेंगे तो आएगा, नहीं तो नहीं ।' उत्तर सीधा है कार्य को समझने के लिए कारण को समझना चाहिए। साम्यवाद का कारण हैपूंजीवाद | दो सौ वर्ष पहले पूंजीवाद इस अर्थ में रूढ़ नहीं था, जिस अर्थ में आज है । अठारहवीं (ई. 1761) शदी में भाप का आविष्कर हुआ । उसके साथ-साथ पूंजीवाद आया । इससे पहले यातायात के साधन क्षुद्र वेग वाले थे। संग्रह के साधन सुलभ नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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