SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग जातियों की अपेक्षा कट्टरता अधिक पनपती है । जाति और धर्म को पृथक् कर देना मनुष्य जाति के हित में अधिक है। एक जाति का आदमी अपनी जाति का परिवर्तन किए बिना किसी भी धर्म को मानने में स्वतन्त्र है । यदि यह बात सम्मत हो जाए तो आनुवंशिक संप्रदाय की मान्यता से उत्पन्न समस्याएं सहज ही निराकृत हो जाती हैं। 158 मैं इस सचाई से अपरिचित नहीं हूं कि यह कल्पना कितनी दुरुह और कितनी कठिनाइयों से भरी है । कोई भी कल्पना एक ही क्षण में आकार नहीं लेती, यह मुझे ज्ञात है। रोग की चिकित्सा का पहला अंग है, उसका निदान खोज लेना । जातीय और सांम्प्रदायिक संघर्षों का निदान हमारे हाथ आ जाता है तो उसकी चिकित्सा हमारे लिए सुलभ हो जाती है । जन्मना जाति और आनुवंशिक संप्रदाय की स्थिति रहते हुए क्या राष्ट्रीय एकता स्थापित नहीं हो सकती ? कर्मणा जाति और स्वीकृत संप्रदाय के मूल्य की स्थापना ही क्या राष्ट्रीय एकता का एकमात्र विकल्प है ? यह प्रश्न अनेक मंचों से उपस्थित हो सकता है। इसके उत्तर में इतना ही कहना मुझे पर्याप्त लगता है कि राष्ट्रीय एकता का सर्वश्रेष्ठ विकल्प यही है । इस स्थिति का निर्माण न हो तब तक दूसरा विकल्प भी उपेक्षणीय नहीं है । मानवीय एकता का विचार राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में नहीं किया जा सकता। उसके होने पर अन्तर्राष्ट्रीय एकता भी सध जाती है, राष्ट्रीय एकता सहज ही सध जाती है । क्या मानवीय एकता हमें प्रिय है ? नहीं है, यह कटु होते हुए भी बहुत यथार्थ है। व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों के संस्कार बहुत प्रबल हैं। उनके अस्तित्व में व्यापक हितों और स्वार्थों की बात सोचना असंभव ही रहा है । जन-साधारण में परस्पर संदेह और अविश्वास कम होता है। उसमें जातीय और सांप्रदायिक घृणा की मात्रा उतनी नहीं होती, जो उन्हें दंगों तक ले जाए। दंगों तक ले जाने वाली घृणा की भूमिका का निर्माण कुछेक बुद्धिमान लोग करते हैं। वे अकारण ही नहीं करते, अपने निहित स्वार्थों के कारण करते हैं। ऐसा करने वालों में धर्म-संप्रदाय और राजनीतिज्ञ - संप्रदाय दोनों के लोग होते हैं । उनके गुरुत्व और नेतृत्व की सुरक्षा के लिए ऐसा करना आवश्यक हो गया है। इन बौद्धिक लोगों में व्यक्तिगत स्वार्थ या अहं की भावना कम हुए बिना क्या राष्ट्रीय एकता का स्वप्न फलित हो सकता है ? महात्मा गांधी ने इसी समस्या को ध्यान में रखकर व्यक्ति के चरित्र विकास को प्राथमिकता दी थी । अणुव्रत के माध्यम से भी इसी उद्देश्य को प्राथमिकता दी जा रही है। संघर्ष की पृष्ठभूमि में प्रत्यक्ष लड़ने वाले कभी मुख्य नहीं होते। मुख्यता उन्हें लड़ाने वालों की होती है। सामाजिक विकास और व्यक्तिगत चरित्र को संतुलित महत्त्व देने पर ही इस भूमिका से निपटा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy