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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग नहीं जीती जा सकती । स्व-विजय का प्रयत्न बहुत थोड़ा होता है, इसीलिए भोग सता रहे हैं, विकार और हिंसा बढ़ रही है। एक की दूसरे के साथ स्पर्धा है । वातावरण भय से भरा है। अहिंसा का दूसरा पहलू अभय है। अपनी मौत से डरना भी हिंसा है। जो दूसरों को पराधीन रखना चाहते हैं, हीन बनाये रखना चाहते हैं, जातिगत भेदभाव रखते हैं, छुआछूत, ऊंच-नीच और काले-गोरे के पचड़े में फंसे हुए हैं, उन्हें देखिये- वे अभय नहीं हैं, शान्त नहीं हैं। जिनकी भोग- लिप्सा बढ़ी हुई है, जो परिग्रह के पुतले और शोषण के पुंज बने हुए हैं, उनसे पूछिये, उन्हें कितनी शान्ति है ? शान्तिपूर्ण जीवन वही बिता सकता है, जो ऊपर की बुराइयों से दूर है। बुराई से दूर वही रह सकता है जिसमें प्रतिरोधात्मक शक्ति या स्व-नियन्त्रण का पर्याप्त विकास होता है।
7.4. राष्ट्रीय एकता की समस्या और समाधान की दिशा - अणुव्रत
मैं इस स्थापना के साथ अपने विचार को आगे बढ़ाऊंगा कि मनुष्य असीम होकर जी नहीं सकता। रेखा खींचना उसके लिए अनिवार्य है। सबसे पहली रेखा है हमारा शरीर । इसका अतिक्रमण कोई नहीं कर सकता। दूसरी रेखा है परिवार। स्नेह और ममत्व की नैसर्गिक आकांक्षा की तृप्ति के लिए मर्यादा को मान्यता देनी होती है। तीसरी रेखा है घर । गर्मी और सर्दी से बचने के लिए हमें असीम को ससीम करना पड़ता है। चौथी रेखा है जाति । पारिवारिक संबन्धों की व्यवस्था और शक्ति-संवर्धन के लिए हम जाति की अधीनता स्वीकार करते हैं। पांचवीं रेखा है राष्ट्र । अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए हम राष्ट्रीय विधान को मान्यता देते हैं। छठी रेखा है संप्रदाय । अपनी आन्तरिक भावना की पूर्ति के लिए हम धर्म को मान्य करते हैं और उसकी परम्परा चलाने के लिए एक विचार के लोग मिल संप्रदाय का निर्माण कर लेते हैं। छोटी-मोटी रेखाएं अनेक हैं। मैंने उन्हीं रेखाओं का उल्लेख किया है, जो मुख्य हैं, और हमारे जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं।
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कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि इन रेखाओं को समाप्त कर दिया जाये । शरीर की रेखा को समाप्ति की ओर नहीं ले जाया जा सकता । घर भी अनिवार्य है । राष्ट्र की सीमा यदि मिटे तो मुझे प्रसन्नता होगी, पर उसे मिटाने की तैयारी भी दिखाई नहीं देती । परिवार, जाति और सम्प्रदाय की रेखाओं को मिटाने का स्वर राष्ट्रीय विकास और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में मुखर होता जा रहा है। मैं पारिवारिक सीमा के अतिक्रमण के विपक्ष में नहीं हूं। और मैं मुनि हूं इसलिए हो भी नहीं सकता । किन्तु इस पक्ष में भी नहीं हूं कि परिवार की सीमा का अतिक्रमण राजकीय कानून के बल पर एक रूढ़ि या विवशता बन जाये । अवस्था और चिन्तन की परिपक्वता आने पर कोई व्यक्ति पारिवारिक सीमा को छोड़ व्यापक क्षेत्र में प्रवेश पाता है, वह अभिनन्दनीय है । पर बच्चों के पारिवारिक स्नेह और ममत्व से वंचित करने का औचित्य उनके यांत्रिक जीवन निर्माण की पृष्ठभूमि पर ही स्थापित किया जा सकता है।
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