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________________ अहिंसक समाज- संरचना आत्मा, शरीर, वाणी और मन ( या आत्मा और शरीर ) की सहयोगी स्थिति का नाम जीवन है । इस सहयोगी स्थिति का अधिकारी जो होता है, वह व्यक्ति कहलाता है । जीवन स्व (आत्मा) और पर ( शरीर, वाणी और मन ) का संगम है। व्यक्ति भी स्व-पर के संगम से बनी हुई संस्था है। जीवन का स्व-अंश स्वभाव और पर- अंश विभाव है। वास्तव में स्वाभिमुखता या स्वरमण, वही अहिंसा है। पराभिमुखता या पदार्थाभिमुखता विभाव, विकार या हिंसा है। स्वभाव का विकास शुरू होते ही विभाव एकदम चला नहीं जाता। स्वभाव मात्रा कम होती है, विभाव सताता है, अशान्ति और उद्वेग लाता है । स्वभाव की मात्रा बढ़ती है - मन, वाणी, शरीर और पदार्थ के प्रति नियन्त्रण - शक्ति बढ़ती है, तब विभाव उतना सताता नहीं। फिर जीवन की दिशा और गति स्वयं स्वभावोन्मुख हो जाती है। 155 अहिंसा विशाल होती है। हिंसा सीमा से परे नहीं हो सकती। एक व्यक्ति क्रूर होकर भी 'सबका हिंसक बन जाये'- उतना क्रूर नहीं होता । उसकी हिंसा की भी एक निश्चित रेखा होती है। वह अपने राष्ट्र, समाज, जाति या कम-सेकम परिवार का शत्रु नहीं होता । वह हर क्षण क्रियात्मक हिंसा नहीं करता । व्यक्ति कोध करता है पर क्रोध ही करता रहे - ऐसा नहीं होता। मान, माया और लोभ की परम्परा भी निरन्तर नहीं बढ़ती । क्रोध की मात्रा बढ़ती है, व्यक्ति में पागलपन छा जाता है। मान, माया और लोभ की बढ़ी हुई मात्रा भी शान्ति नहीं देती। थोड़े में समझिये, हिंसा को सीमित किये बिना व्यक्ति जी नहीं सकता । 1 अहिंसा विशाल है, अनन्त है, बन्धन से मुक्त है। कोई समूचे जगत् के प्रति अहिंसक रहे तो रहा जा सकता है । अहिंसा की मात्रा बढ़ती है, प्रेम का धरातल ऊंचा और निर्विकार होता है, उससे आनन्द का स्रोत फूट निकलता है 1 अहिंसा अनन्त आनन्द का सतत प्रवाही स्रोत है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव उसमें सहजतया नहीं रमता । इसका कारण नियन्त्रण-शक्ति का अभाव है । मन, वाणी और शरीर की निरंकुश - वृत्तियों का प्रतिरोध करने की आत्मशक्ति का जितना कम विकास होता है, उतना ही अधिक हिंसा का वेग बढ़ जाता है । हिंसा की मर्यादाएं कृत्रिम होती हैं । उनमें तड़क-भड़क और लुभावनापन भी होता है। अहिंसा में दिखावटीपन या बनावटीपन नहीं होता। वह आन्तरिक मर्यादा है । वह आती है, तभी व्यक्ति का व्यक्तित्व - जीवन की स्वतन्त्रता निखरती है । आत्मानुवर्ती-नियामानुवर्ती यानी अहिंसक ही वास्तव में स्वतन्त्र है । मनुष्य बुराई करते नहीं सकुचता । इसीलिए दुनिया का प्रवाह विकार की ओर है। भोग और इन्द्रियों की दासता बढ़ रही है। कहा जाता है- प्रकृति-विजय की ओर मनुष्य सफल अभियान कर रहा है। पर यह तथ्यहीन दावा है । पानी और अग्नि पर विजय प्राप्त करना ही प्रकृति विजय नहीं है। शरीर, वाणी और मन को जीते बिना प्रकृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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