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अहिंसक समाज- संरचना
153 क्षण में भगवान् महावीर ने कहा था- 'न अज्झावेयव्वा'- किसी भी मनुष्य पर हुकूमत मत करो, उसे अपने अधीन बनाकर मत रखो। यह अहिंसा का मूल मंत्र है। इसकी वेदी पर ही अहिंसा की प्रतिमा प्रतिष्ठित हो सकती है। क्या वर्तमान हिंसा के पीछे आर्थिक शक्ति की अधीनता का योग नहीं है ? क्या वर्तमान हिंसा के पीछे सत्ता-बल का हाथ नहीं है ? यदि धनाधीश और सत्ताधीश दूसरों के जीवन-निर्वाह की स्वतन्त्रता की सुरक्षा का ध्यान रखते तो नक्सली हिंसा, सत्ता की छीनाझपटी और दलबदलू राजनीति का अभिनय नहीं होता।
स्वतन्त्रता का आधार है शक्ति का संतुलन- सबकी शक्ति का विकास या सबको शक्ति के विकास का उचित अवसर। जनतंत्र का आधार भी यही है। पर प्रतीत यह हो रहा है कि जनतन्त्र ने अहिंसा को प्रतिष्ठा नहीं दी है।
जिस देश के नेता और जनता दोनों में प्रामाणिकता की कमी और अपनाअपना स्वार्थ साधने की मनोवृत्ति प्रबल हो वहां अहिंसा की प्रतिष्ठा कैसे हो सकती है?
अणुव्रत अहिंसा के विकास की पृष्ठभूमि है। पृष्ठभूमि का निर्माण ही अहिंसा की संभावना को उत्पन्न करता है । हम कारण की उपेक्षा कर कार्य की सृष्टि का स्वप्न संजोएं।
___अणुव्रत-आन्दोलन की आत्मा व्रत है। व्रत के मौलिक विभाग पांच हैं। शेष सब उनकी व्याख्याएं हैं। पांचों में भी मूलभूत व्रत एक अहिंसा है। सत्य आदि उसी के पहलू हैं।
आन्दोलन के कुछ विषयों का सम्बन्ध सामाजिक क्षेत्र से है। वे हिंसा को उत्तेजना देते हैं। इसलिए उनके संवरण की ओर संकेत किया गया है। दहेज में जीव-हिंसा का सीधा प्रसंग नहीं है। पर हिंसा का मतलब केवल जीव-वध ही नहीं है, उसका मुख्य सम्बन्ध मनुष्य की वृत्तियों से है। वृत्तियां लोभपूर्ण बनती हैं । वे सहज ही हिंसा की ओर झुक जाती हैं । हिंसा के प्रमुख कारणों से बचे बिना हिंसा से बचा नहीं जा सकता।
कुछ लोग ब्याज को अहिंसक व्यापार मान बैठे हैं, और कुछ लोग सट्टे को। खेती में हिंसा दीखती है। व्यापार में चाहे जितनी क्रूर-वृत्ति हो, वह हिंसा नहीं लगती। तात्पर्य कि हिंसा की मान्यता जीव-वध के साथ जुड़ी हुई है, वैसी वृत्तियों के साथ जुड़ी हुई नहीं है। अणुव्रत-आन्दोलन वृत्ति के परिशोधन को प्रधान मानकर चलता है। जीव-वध का हेतु भी अशुद्ध-वृत्ति है । वह छूटती है तो जीव-वध की प्रवृत्ति भी छूट जाती है।
___ चोरी क्या है ? शोषण क्या है ? इन सारे प्रश्नों का समाधान अहिंसा की पार्श्वभूमि में ही ढूंढना चाहिए ।
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