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7. अहिंसक समाज - संरचना
7.1. अहिंसा की पृष्ठभूमि
मानसिक शान्ति के लिए अहिंसा अनिवार्य है ही । किन्तु सामाजिक विकास और विकासोन्मुख गति के लिए भी वह कम अनिवार्य नहीं है। इस अनिवार्यता की अनुभूति कराना उतना ही अनिवार्य है जितनी कि अहिंसा अनिवार्य है। बहुत बार मनुष्य स्वास्थ्य के कारणों को जाने बिना अस्वस्थ बना रहता है। रोगी को रुग्ण होने की अनुभूति होना ही नीरोगता का पहला उपक्रम है। क्या वर्तमान समाज को इस बात का अनुभव है कि वह हिंसा के रोग से व्यथित है ? क्या वह इस व्यथा से उत्पन्न किसी अनिष्ट परिणाम को भोग रहा है ? क्या वह इससे मुक्त होना चाहता है ? क्या अहिंसा में वह अपनी समस्याओं का समाधान देखता है ? यदि देखता है तो क्या वह अपने स्वार्थों का विसर्जन करने को तैयार है ? ये वे प्रश्न हैं, जो अहिंसक को अपने आपसे पूछने चाहिए और उन लोगों से पूछने चाहिए जो अहिंसा को सामाजिक धरातल पर प्रतिष्ठित करना चाहते हैं ।
भगवान् महावीर कारण और परिणाम दोनों की एकात्मकता का प्रतिपादन करते थे। हिंसा स्वयं प्रवृत्ति नहीं है, वह परिणाम है। हिंसा के कारण न हों तो वह निष्पन्न नहीं होती । इसी प्रकार अहिंसा भी परिणाम है । अहिंसा की निष्पत्ति भी उसकी पृष्ठभूमि पर ही होती है ।
पौधे के अग्र का फलना-फूलना या सूखना उस पर निर्भर नहीं है । उसकी निर्भरता मूल पर है। मूल को सिंचन मिलता है तो अग्र फलता-फूलता है मूल को पोष नहीं मिलता है तो अग्र भी सूख जाता है।
और
हिंसा का मूल है ममकार और अहंकार । उसका अग्र है गाली-गलौज, उत्पीड़न और हत्या। दोनों का प्रतिबिम्ब है- स्वार्थ ।
अहिंसा का मूल है आध्यात्मिक शक्ति की अनुभूति । उसका अग्र है प्रेम, मैत्री, समानता और एकता का व्यवहार। दोनों का प्रतिबिम्ब है- स्वार्थ का विसर्जन । क्या शक्ति-संतुलन की पृष्ठभूमि का निर्माण हुए बिना अहिंसा का विकास संभव है ? इस प्रश्न पर मैं चिरकाल से सोचता रहा हूं। मैं चिर-चिंतन के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हिंसा का बीज शक्ति के प्रदर्शन से प्रस्फुटित होता है। एक व्यक्ति या वर्ग शक्ति का प्रदर्शन कर दूसरे व्यक्ति या वर्ग को अधीन रखना चाहता है। अधीनीकृत व्यक्ति या वर्ग के मन में इस हिंसा की प्रतिक्रिया होती है। इस असंतुलित शक्ति के वातावरण में हिंसा की आग भभक उठती है । इसी अनुभूति के
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