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________________ अणुव्रत आन्दोलन 145 जो श्रम करता है, वह छोटा समझा जाता है । उसमें स्वयं ही हीनता की भावना बन जाती है। बड़ा वह है जो ज्यादा धनी है, बड़े मकानों में रहता है, भौतिक सुख-सुविधा से अधिक सम्पन्न है | भलाई और नीति के पथ पर चलकर व्यक्ति छोटा कहलाए, यह उसे अच्छा नहीं लगता । तब वह धन-संग्रह का मार्ग चुनता है। वहां सत्य और न्याय की बात गौण बन जाती है या उड़ जाती है। बड़ा-छोटा बनने का आधार पैसा रहे, वैसी दशा में अपरिग्रह की भूमिका नहीं बनती, पैसे का मोहक आकर्षण मूल्यांकन की दृष्टि को बदल देता है। यह मदिरा से भी अधिक मादक है। पैसे में भोग के प्रतिदान की शक्ति है, इसलिए उसकी ओर सहसा दृष्टि खिंच जाती है । बहुसंयोग और बहुभोग की पूर्ति के लिए बड़े परिग्रह की बात प्रधान रहे, वहां व्रत का ध्येय सफल नहीं हो सकता। इसलिए जो व्रती बनते हैं, वे परिग्रह की जड़भोग - वृत्ति का नियमन करें, श्रम को नीचा और परिग्रह को ऊंचाई मानने की भावना को तोड़ें, तभी अपरिग्रह और अहिंसा का विचार आगे बढ़ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो अवश्य ही व्रत- प्रधान या अहिंसा प्रधान समाज का निर्माण हो सकेगा और अणुव्रती भाई-बहिन उस आदर्श समाज के आधार स्तम्भ और सूत्रधार होंगे। नैतिकता की समस्या : निष्ठा का अभाव - पुराने जमाने की बात है। एक जमींदर किसी महात्मा के पास गया। उसने महात्मा की भक्ति कर उनसे आशीर्वाद मांगा - महात्मन् ! आप मुझे आशीर्वाद दें, जिससे मेरा बड़प्पन जैसा है वैसा का वैसा बना रहे । - महात्मा ने प्रसन्न होकर कहा- तथास्तु । एक गुलाम सामने खड़ा था । वह बहुत समय से महात्मा की उपासना कर रहा था। उसने भी आशीर्वाद मांगा। वह बोला- महात्मन् ! आप मुझे आशीर्वाद दें कि आदमी आदमी का गुलाम न रहे। महात्मा ने मुक्त हास्य के साथ कहा- तथास्तु । जमींदार स्तम्भ-सा रह गया। वह बोला- महात्मन् ! गुलामों के बिना ऐश्वर्य और बड़प्पन का अर्थ ही क्या होगा ? मैं अपनी बात इसी कहानी से शुरू करना चाहता हूं कि मनुष्य की संपदा का मूल्य मनुष्य की गुलामी पर टिका हुआ है । यह बहुत बड़ा अधर्म और बहुत बड़ी अनैतिकता है। इसी संदर्भ में मैं एक प्रश्न पूछना चाहता हूं आपसे, आपके मित्रों से, आपके समाज से और आपके राष्ट्र से। क्या आपको नैतिकता पसंद है ? आप उत्तर दें, उससे पहले मैं दो प्रश्न और पूछ लूं । यदि वह आपको पसंद है तो क्यों ? और यदि पसंद नहीं है तो क्यों ? नैतिकता पसंद नहीं है, यह स्वर किसी भी दिशा से नहीं आ रहा है। हर दिशा से यही स्वर मुखर हो रहा है कि हमें नैतिकता पसंद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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