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________________ 144 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग नीति है और न उस पर टिका हुआ है। उसका आधार शुद्ध आध्यात्मिकता है, उसकी आराधना का ध्येय आत्म-शोधन के द्वारा परमात्मा की ओर प्रयाण है। नीति का परिमार्जन उससे सहज हो जाता है, इसलिए नीतिवाद और आत्मवादी दोनों के लिए वह समन्वय का मार्ग है। __ आज व्यक्ति का जीवन उद्देश्य-शून्य, दिशा-शून्य हो गया। वह चलना चाहता है, पर दिशा नहीं मिल रही है। उसमें बुद्धि कौशल है, विवेक शक्ति है, पर जीवन की सही दिशा ढूंढने में या तो वह समर्थ नहीं है या उसे ढूंढने का प्रयत्न नहीं हो रहा है। कुछ तो है ही। दिशा-भ्रम हो रहा है। उसी के परिणामस्वरूप पूंजी का मोह, आकर्षण और अधिकाधिक उपार्जन हो रहा है। पूंजी का अर्जन कितना और कैसे करना, इस परिमाण और साधन की मर्यादा का विवेक नहीं रहा है। इसीलिए अनावश्यक संग्रह और निकृष्टतम स्थानों से धन कमाने में मनुष्य की शक्ति खप रही है। फलस्वरूप मनुष्य का जीवन बोझिल बन रहा है, अनेक अनिष्ट विकल्प खड़े हो रहे हैं। पदार्थपरक विकास जीवन में शांति लायेगा, सुख लायेगा और जो लोकप्रतिष्ठा का पक्ष है, वह भी बलवान बनेगा, एक ऐसी मान्यता है । इसने विशेष रूप से वैज्ञानिक और शिक्षित जगत् को आकृष्ट किया है या यों कहना चाहिए कि वह जगत् ही उस मान्यता का स्रष्टा है। दूसरी मान्यता संयम-विकास या प्रतिरोधात्मक शक्ति के विकास की है। उसकी ध्वनि है- आवश्यकताओं पर नियन्त्रण करो, अपना संयम करो, वृत्तियों का प्रतिरोध करो, वस्तुओं का अतिमात्र उपयोग मत करो। दोनों भिन्न दिशाएं हैं। चौराहे पर खड़े व्यक्ति को निर्वाचन करना है, उसे कहां और किस रास्ते से जाना है ? पदार्थ-विकास ने जगत् को अशान्त और विषम बना रखा है, यह प्रकाश की भांति स्पष्ट है। फिर भी इच्छा का अल्पीकरण और वस्तु का सीमाकरण अच्छा नहीं लग रहा है। विलास और बड़प्पन की वृत्ति संयम की बाधक बनी हुई है। यह भोगवाद की परिस्थिति है। इसके निर्माण के दो हेत हैं- व्यक्ति की आत्मिक कमजोरी और व्रत-पालन के अनुरूप भूमिका का अभाव। राष्ट्र, समाज और परिवार का वातावरण व्रत पालन के अनुरूप नहीं होता, तब तक व्यक्ति को व्रत-पालन की सहज प्रेरणा नहीं मिलती। जीवन-निर्वाह की अनिश्चितता, प्रतिष्ठा और भोगविलास की तीव्र भावना से धन के अतिमात्र संग्रह की वृत्ति पुष्ट होती है। निर्वाह की चिन्ता का सम्बन्ध समाज-व्यवस्था से है। भोग-विलास की तीव्र भावना का सम्बन्ध व्यक्ति की अपनी भावना से है। समाज की व्यवस्था उत्तरदायित्वपूर्ण और प्रतिष्ठा के मान्यता का आधार योग्यता हो तथा व्यक्ति में भोग-नियन्त्रण की शक्ति बढे, तर्थ सामूहिक रूप से अपरिग्रह की भावना को बल मिल सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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