________________
142
अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग अधिकांश लड़ाइयां, अभियोग, आक्रमण और युद्ध भय के कारण होते हैं। यदि मनुष्य नैतिक रहे तो सहज ही विश्वास का वातावरण पैदा हो जाये। वर्तमान की विभीषिका और शस्त्र-निर्माण की स्पर्द्धा इसीलिए तो है कि एक दूसरे के प्रति संदिग्ध है, भयभीत है और क्रूरता अनायास बढ़ रही है। नैतिक विकास के बिना इस प्रवाह को रोका नहीं जा सकता। नैतिक विकास की भूमिका
प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है। सुख का मूल है- शान्ति, और शान्ति का मूल है- भौतिक आकर्षण से बचना । भौतिकता के प्रति जितना अधिक आकर्षण होता है, उतना ही मनुष्य का नैतिक पतन होता है। पदार्थ, सत्ता, अधिकार और बड़प्पन- ये भौतिक या भौतिकता से संबन्धित हैं। इनकी अपेक्षाएं बढ़ती हैं, आत्मौपम्य बुद्धि मिट जाती हैं। प्राणी-प्राणी में या मनुष्य-मनुष्य में समता के भाव रहते हैं तो क्रूरता नहीं बढ़ती। उसके बिना अनैतिकता का पक्ष लड़खड़ा जाता है। मनुष्य-जीवन का दूसरा पक्ष रागात्मक है। उससे प्रेरित होकर मनुष्य अनैतिक कार्य करता है। जातीयता या राष्ट्रीयता के आधार पर जो नैतिकता का विकास हुआ है, उसमें उसका स्वतन्त्र मूल्य नहीं है। वह जाति और राष्ट्र के संकचित प्रेम पर टिकी हई होती है। वह अपनी सीमा से परे उग्र-अनैतिकता बन जाती है। जो व्यक्ति अपने राष्ट्र के हितों के लिए दूसरे राष्ट्र के हितों को कुचलने में संकोच न करे, क्या उसे नैतिक माना जाये? जाति, भाषा, प्रांत और राष्ट्र- ये सारे समानता और उपयोगिता की दृष्टि से बनते हैं। मनुष्य-जाति एक ही है- यह बात भुला दी गयी है । गोरा गोरे से प्रेम करता है और काले को पशु से भी गया-बीता समझता है। सवर्ण और असवर्ण हिन्दुओं में भी ऐसा ही चल रहा है। जातीय और राष्ट्रीय पक्षपात भी स्पष्ट है। ये स्थूल दृष्टि से अच्छे भी लगते हैं। लोग उन युरोपियनों को सराहते हैं, जो अधिक कीमत देकर भी अपने देशवासियों की दुकान से चीज खरीदते हैं। वही चीज दूसरी जगह कम कीमत से मिलने पर भी नहीं खरीदते । इसे राष्ट्रीय प्रेम का विकास माना जाता है। पर थोड़े से गहरे चलें तो दीखेगा कि यह, मनुष्य-जाति एक है, उसकी विपरीत दिशा है। इस कोटि की भावनाएं ही उग्र बनकर संघर्ष और युद्ध के रूप में फूट पड़ती हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र का विकास हो, अपनी जाति या भाषा की प्रगति हो, यह भावना यहीं तक सीमित रहे तो प्रियता को क्षम्य भी माना जा सकता है किन्तु वह प्रियता दसरों के लिए अप्रिय परिस्थिति पैदा कर देती है, वहां मानव-जाति की अखण्डता विभक्त हो जाती है। इसलिए वह प्रेम भी अखण्ड मानवता की दृष्टि से अप्रेम ही है और उसके आधार पर विकसित होने वाली नैतिकता भी स्वतन्त्र मूल्यों की दृष्टि से अनैतिकता ही है, इसलिए अणुव्रत-आन्दोलन का यह प्रयत्न है कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org