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अणुव्रत आन्दोलन
141 नियन्त्रण की ओर ध्यान न देते हुए सिर्फ आर्थिक और राजनैतिक वैषम्य का निवारण करना चाहते हैं, उन्होंने बुराई की जड़ को नहीं पकड़ा है। भोग-वृत्ति प्रबल रहेगी तब वैषम्य मिटेगा कैसे? यह आलोचनीय विषय का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। आर्थिक समता का प्रयत्न होता है, कुछ व्यवस्था बनती है। समय बीतता है। उभरी हुई भोग-वृत्ति फिर उस पर छा जाती है। वातावरण विषम बन जाता है। भोग के लिए शक्तियोग की उपासना लगभग समूचे मानव-समाज में परिव्याप्त है। आर्थिक और राजनैतिक समता तक पहुंचने का प्रयत्न समाज के लिए बुरा नहीं है, पर वह केवल यात्रा का विश्रान्तिगृह है- इसे नहीं भुलाना है। आखिर वहां तक चलना है, जहां अनैतिकता की जड़ पर भोग-वृत्ति पैर रोपे बैठी है। उसे उखाड़ फेंकना है। व्रत का साध्य यही है।
समाज का समतापूर्ण और स्थिर आर्थिक और राजनैतिक ढांचा ही नैतिकता का आधार है- यह भी अर्द्ध-सत्य है। लड़खड़ाती हुई आर्थिक स्थिति में भी त्याग के संस्कारों में पलने वाले लोग अनीति से परे रहे हैं और रहते आ रहे हैं। आर्थिक साम्य में भी अपराधों का लम्बा सूचीपत्र बनता है। इन दोनों स्थितियों को अन्तिम छोर या आपवादिक घटनाएं नहीं कहा जा सकता। यह सचाई है। इसी के सहारे हमें नैतिकता का आधार ढूंढना है। बुराई न करने में अपनी भलाई का विश्वास, बुराई का बुरा फल भोगने के निश्चित नियम का विश्वास, आत्मा के अमरत्व का विश्वास- ये तीन विश्वास नैतिकता के आधार हैं। इनका विकास किए बिना नैतिकता का प्रतिष्ठापन नहीं किया जा सकता। समाज के लिए अपना अर्पण और सामाजिक एकता की दृढ़ भावना भी नैतिकता का स्थूल आधार बन सकती है, पर इस आधार पर नैतिकता व्यापक नहीं हो सकती। वह अपने समाज और राष्ट्र तक ही सीमित होती है। वह दूसरों के प्रति अधिक अनैतिक-कूटता के रूप में उभर आती है, जैसा कि बहुत सारे भौतिक-विचार-प्रधान राष्ट्रों में हो रहा है। यही हाल आर्थिक और राजनैतिक साम्य के आधार में बंध जाने वाली नैतिकता का है। इसलिए हमें पथ की लम्बाई को कम नहीं नापना चाहिए। नैतिकता के सही आधार को प्रकाश में लाया जाये और उसके संस्कार दृढमूल किए जाए- यह बहुत बड़ी अपेक्षा है। .. नैतिक विकास क्यों?
नैतिक विकास का प्रश्न सामाजिक प्रश्न है। आध्यात्मिकता यद्यपि वैयक्तिक होती है, किन्तु आध्यात्मिकता-हीन व्यक्ति स्वतंत्र भाव से नैतिक नहीं हो सकता। इसलिए समाज के संपर्क में वह नैतिकता बन जाती है। नैतिकता के बिना व्यक्ति पवित्र नहीं रहता, इतना ही नहीं, किन्तु सामूहिक व्यवस्था भी नहीं टिक पाती। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति प्रामाणिक न रहे, ईमानदार न रहे, तब संदेह बढ़ता है। संदेह से भय और भय से क्रूरता बढ़ती है। मनोविज्ञान के अनुसार भय के दो परिणाम होते हैं- पलायन और आक्रमण।
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