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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग महात्मा भगवानदीनजी के अनुसार- "जहां मनुष्य में यह विश्वास पैदा हुआ कि वह समाज का सभ्य हुए बिना सुखी रह ही नहीं सकता, अपनी उन्नति कर ही नहीं सकता, अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता, उसे समाज का सभ्य बनकर रहना ही होगा, वहां अपने-आप समाज के प्रति सत्य व्रती बन जाता है। व्रत लेना नहीं पड़ता, उसका सत्य अपने-आप व्रत का रूप ले बैठता है।"इस विचारधारा में व्रत कहां है, यह कोरा स्वार्थ है। व्रत की कल्पना केवल स्वार्थ-पूर्ति ही हो तो भले ही उसे व्रती कहा जाए। हमारी नम्र धारणा में व्रत की भूमिका इससे ऊंची है। व्रत आत्मसंयम से आते हैं, आत्म-विकास के लिए संकल्प पूर्वक स्वीकार किए जाते हैं। इसलिए वे सामाजिक सुविधा-असुविधा से बनते-बिगड़ते नहीं। हो सकता है, कहीं-कहीं समाज का अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण उनके बनने-बिगड़ने में निमित्त बन जाए।
सामाजिक सुख-सुविधा की उपलब्धि के लिए जो सत्य और अहिंसा का विकास होगा वह सीमित होगा। जिस समूह से सुख-सुविधा उपलब्ध होती है वहां अहिंसा और सत्य का व्यवहार होगा। जहां राह नहीं मिलती, वहां हिंसा और असत्य का विकास होगा। इस भूमिका में अहिंसा और सत्य का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। यह तो निरा परिस्थितिवाद है। व्रत व्यक्ति का निजी 'स्व' है वह बलात् नहीं होता, स्वेच्छा से किया जाता है। व्रत कोई बाहरी वस्तु नहीं, वह इच्छा और आचरण का नियमन है। व्यक्ति में इच्छा पैदा होती है और आचरण में उसकी अभिव्यक्ति होती है। वह आचरण जिसमें आत्मा का विकास रुके, न किया जाय और उसकी इच्छा भी मिट जाय, वैसा अभ्यास किया जाए- यही है व्रत । पराधीनता से कोई आदमी काम नहीं करता। वह व्रत नहीं, वह भोग की अप्राप्ति है। व्रत है- भोग-त्याग का स्वाधीन संकल्प और अभ्यास।
___अणुव्रत-आन्दोलन व्रत की पूजा का आन्दोलन नहीं है। उसमें आदि से अन्त तक व्रतों के अभ्यास की चर्चा है। जो लोग व्रत की आराधना न कर केवल उसकी पूजा में ही श्रेय समझने लगे हैं, उनके लिए यह आन्दोलन चुनौती बन गया है।
भौतिक लाभ या अलाभ के मापदण्ड से सत्य और अहिंसा को मापा जाता है- यह भयंकर भूल है।
असत्य से दूसरे की हानि होती है, इसलिए वह अधर्म है- यह गलत है।
असत्य से आत्मा में मोह बढ़ता है, इसलिए वह अधर्म है और सत्य से उसमें प्रकाश आता है इसलिए वह धर्म है। असत्य या सत्य बोलना, यह स्थूल बात है। व्रत वह है, जिससे असत्य बोलने का मोह जो है वह मिट जाए, फिर चाहे असत्य भी बोलना पड़े। यह साधना अकेलेपन में भी मूल्यवान् है और समाज में भी।
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