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________________ अणुव्रत आन्दोलन 137 जंगली जातियों में भी ऋजुता है, सचाई है, विकार की कमी है, वह सहज है। परिस्थिति की उत्तेजना न मिलने तक है। परिस्थिति की उत्तेजना मिलती है, दूसरा वातावरण सामने आता है, वे सहज गुण दोष में बदल जाते हैं। व्रत साधना-लभ्य आत्मस्थिति है। विकार का हेतु होने पर भी आत्मा विकृत न बने, परिस्थिति का कुयोग होने पर भी गुण दोष रूप में न बदले, उस आत्म-स्थिति का नाम व्रत है। आज फिर से जंगली या असामाजिक जीवन बिताने की तैयारी समाज के पास नहीं है। समाज से दूर भागकर ऋजुता, सचाई और सौजन्य को पाने के लिए समाज तैयार नहीं है। इस स्थिति में हमारे पास व्यक्ति की भलाई का साधन एकमात्र व्रत ही बच रहता है। व्रत का कवच पहन व्यक्ति भौतिक आकर्षण से बचे, इसके लिए प्रचार भी आवश्यक है। मैथ्यू अर्नाल्ड की भाषा में- "समाज अपनी गति से आगे नहीं बढ़ सकता। उसे थोडे से लोग जबर्दस्ती आगे ढकेलते हैं और ये थोडे से लोग उन कतिपय व्यक्तियों से प्रेरणा पाते हैं, जो श्रेष्ठ ज्ञानी हैं, जिनमें सूझ, साहस और शक्ति है।" __ प्रचार के पीछे अपना स्वार्थ हो तो वह बुरा भी हो सकता है। हितलक्षी प्रचार बुरा नहीं होता। प्रकाश की चर्या भी अन्धकार के लिए विघ्न नहीं है, ऐसा हम कैसे कहें ? अणुव्रत का प्रचार श्रद्धा-जागरण का प्रचार है। श्रद्धा का परिपाक ही व्रत में बदल जाता है। व्रत लेते समय उसका संकल्प लिया जाता है। व्रत का परिपाक दीर्घकालीन साधना से होता है। व्रत की पहली भूमिका है श्रद्धा का जागरण, बीच की है स्थिरीकरण और अन्तिम है आत्म-रमण । जैन भाषा में श्रद्धा या रुचि दो प्रकार की होती है- नैसर्गिक और आधिगमिक। मनोविज्ञान इसी तथ्य को नैसर्गिक और अर्जिता- इन शब्दों में बांधता है। रुचि आधिगमिक या अर्जिता भी होती है। इसलिए प्रचार पर पटक्षेप नहीं किया जा सकता। आचार्यश्री तुलसी के शब्दों में- 'सहज-श्रद्धा के लिए आन्दोलन जरूरी नहीं किन्तु श्रद्धा को जगाने के लिए आन्दोलन अवश्य चाहिए। शब्द की दृष्टि से यह अणुव्रतों का आन्दोलन है। भावना की दृष्टि से यह श्रद्धा-जागरण का आन्दोलन है। व्रत का स्थान दूसरा है, पहले श्रद्धा का है। हृदय-श्रद्धा से बदलता है, व्रत से नहीं।' जो अहिंसा का प्रचार करेगा, वह उसकी पृष्ठभूमि और उसके परिणाम का भी प्रचार करेगा। मनुष्य मनुष्य समान है- यह दृष्टि तो स्पष्ट है ही, किन्तु अहिंसा के प्रचारक को यह समझना होगा कि आत्मा समान है। अहिंसा की पृष्ठभूमि है आत्मौपम्य- सब जीवन समान है। उसे समझे बिना अहिंसा का मर्म समझा ही नहीं जाता किन्तु सुखी रहने के लिए या समाज का सभ्य बने रहने के लिए ही कोई व्यक्ति अहिंसा या सत्य का व्रती बनता है तो बहुत छोटी बात होगी। उसे अहिंसा या सत्य का व्रती कहने की अपेक्षा अहिंसा और सत्य का स्वार्थी कहें तो अच्छा होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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