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________________ अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग को ध्यान में रखकर ही हम किसी वस्तु को अच्छी या बुरी कह सकते हैं । प्रचार की भी मर्यादाएं हैं। पहले विचार आता है, फिर आचार। दोनों के बीच में रहता है - प्रचार | प्रचार के माध्यम से ही विचार दूसरों तक पहुंच आचार बनता है । भगवान् महावीर ने अनुभूति के स्वर में कहा- सुनो, मनन करो और आचरण करो । 136 वैदिक ऋषियों ने श्रवण, मनन और निदिध्यासन को विकास क्रम कहा । विकास का वास्तविक क्रम यही है - जो सोए हुए हैं, उन्हें जगाओ, जो जागे हुए हैं, उन्हें प्रगति की ओर ले जाओ। प्रचार अपने-आप में न गुण है और न दोष । शुद्ध-साध्य की उपलब्धि के लिए शुद्ध साधनों द्वारा साधना के क्रम को प्रकाश में लाना प्रचार है और वह बुरा तो किसी प्रकार नहीं है । व्रत के प्रचार का मुख्य उद्देश्य समाज - शोधन है भी कहां ! उसका प्रधान लक्ष्य है - व्यक्तिशोधन । समाज का नियन्त्रण हो सकता है, शोधन नहीं । शोधन व्यक्ति व्यक्ति का होता है। बहुत सारे शुद्ध व्यक्तियों का समाज शुद्ध बन जाता है। समाज-संगठन की नींव सत्य और अहिंसा है- यह स्थूल - सत्य है । सचाई यह है कि वह पारस्परिक सहयोग के लिए संगठित हुआ और संगठन का परिणाम हुआ सुविधा । समाज-संगठन में सत्य और अहिंसा का स्वतन्त्र मूल्य नहीं है, उतना ही मूल्य है जितना कि नदी को पार करने के लिए पुल का। समाज सत्य और अहिंसा के प्रयोग का विकास करने के लिए नहीं बना है। सुविधा या स्वार्थ की सिद्धि के लिए हिंसा और असत्य से बचना अहिंसा और सत्य का स्वतन्त्र मूल्य नहीं माना जा सकता। कोई भी हिंसक कहा जाने वाला प्राणी सतत हिंसा नहीं करता, सबकी हिंसा नहीं करता, हेतु के बिना हिंसा नहीं करता। क्या वह अहिंसा का व्रती है ? मूक प्राणी कभी नहीं बोलता, क्या वह सत्य का व्रती है ? व्रत विकास का संकल्प है। हिंसा और असत्य का न होना सुविधा के लिए भी हो सकता है, बचाव के लिए भी हो सकता है, प्रयोजन के अभाव में भी हो सकता है, और भी अनेक कारणों से हो सकता है। इसलिए अहेतुक या संगठन - हेतुक सत्य और अहिंसा को विकास हेतुक सत्य और अहिंसा - व्रत के साथ तोलना एक अक्षम्य भूल हो सकती है। संगठनहीन दशा में सत्य और अहिंसा का प्रचार नहीं होता, इसका कारण प्रचार की आवश्यकता का अभाव नहीं किन्तु उसकी क्षमता का अभाव है। प्रचार लगन की परिपक्वता का लक्षण है। जैन परिभाषा के अनुसार यौगलिक - जीवन और इतिहास की भाषा के अनुसार मानव के आदि जीवन में ज्ञान का प्रचार - लब्ध विकास नहीं होता । उसका आचार सहज शुद्ध होता है, किन्तु किसी महान् उद्देश्य के लिए साधना-लब्ध शुद्ध नहीं होता । आज की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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