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________________ 135 अणुव्रत आन्दोलन मिटता है तो उसका दूसरा रूप उभरता भी है। यह परिस्थितिवाद की देन है। उसे मुख्य मानकर चला जाये तो वह रुकेगी नहीं। आध्यात्मिकता परिस्थिति-निरपेक्ष है। मनुष्य आत्मा है। उसकी क्षमता असीम है। वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी नैतिक रह सकता है। अणुव्रत-आंदोलन का ध्येय है- इस श्रद्धा को जगाना। संख्या और व्यक्तित्व किसी भी स्थिति का आकलन करने के लिए संख्या का उपयोग होता है। अणुव्रत-आंदोलन जन-मानस को कितना छू रहा है, इसकी जानकारी के लिए अणुव्रतियों की संख्या की जाती है। पर आंदोलन का विश्वास संख्या में नहीं, व्यक्तित्व में है। व्रत की सफलता चरित्र के विकास से नापी जाती है। चरित्र-सम्पन्न व्यक्ति संख्या में भले ही थोड़े हों समाज के लिए पथदर्शक बन सकते हैं। व्रतों को स्वीकार कर उनके आचरण से जी चुराने वाले आंदोलन को प्रभावशाली नहीं बना सकते और अपना भी भला नहीं कर सकते। आंदोलन की भावना जन-जन तक पहुंचनी चाहिए। फिर कोई अणुव्रती बने या न बने, इसकी चिन्ता आंदोलन के संचालकों को नहीं होनी चाहिए। जो अणुव्रती बनें, उन्हें मार्ग-दर्शन मिले- इस दृष्टि से संख्या करना उचित लगता है। संघटन या विघटन संयम का अर्थ ही विघटन है। इसका मूल व्यक्तिवाद है। व्यक्ति का अपने लिए अपने पर अपना जो नियंत्रण है, वह संयम है। उसका संघटन हो ही नहीं सकता। अणुव्रत-आन्दोलन कोई संघटन नहीं है। इसमें पद और पदाधिकारी भी नहीं हैं। यह व्रतों के अनुशीलन की समान भूमिका है। कुछ लोग अपने को (अवस्था या पद-मर्यादा में) बड़ा मानते हैं । वे व्रत लेने में सकुचाते हैं। उनके विचार से व्रत लेने की आवश्यकता छोटों को ही है। किन्तु यह विचार सही नहीं लगता। व्रत मन का दृढ़ संकल्प है। संकल्प की दृढ़ता के बिना बुराई से बचना सरल नहीं है। बड़ों का संकल्प सहज-भावतया दृढ़ ही होता है- ऐसा नहीं मान लेना चाहिए। सम्भव है, संकल्प होने पर भी कहीं-कहीं व्यक्ति फिसल जाए। पर संकल्पहीन के फिसलने में तो कहीं बाधा ही नहीं है। संकल्प एक सहज आलम्बन है, जो व्यक्ति को फिसलने से बचाता है । संकल्प वाले व्यक्ति बहुत होते हैं। तब बाहरी रूप में सहज ही एक संगठन होता है। वे सब अपनी-अपनी पवित्रता में विश्वास रखने वाले हैं, इसलिए वास्तव में उनका संघटन विघटन ही है। 6.4 आन्दोलन का प्रसार कुछ लोग अणुव्रत-प्रचार को समाज के लिए इष्ट नहीं मानते, यह उनका विचार है। किन्तु प्रत्येक वस्तु की अपनी मर्यादाएं होती हैं। उनकी परिधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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