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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग निर्भर होता है। वह सबकी समान नहीं होती। इसलिए एक साथ वैसा नहीं बनता। इस स्थिति में व्यक्ति-निर्माण की बात शेष रहती है। व्यक्ति समाज का अंग है। यदि एक अंग भी ज्योति-पुंज बनता है, उससे समूचे समाज को आलोक मिलता है। अणुव्रत-आन्दोलन आध्यात्मिक है। इसकी दिशा सबके साथ चलने की नहीं है। बुराइयां कर-कर सब लोग सुख-सुविधाएं पा रहे हैं, फिर अकेला मैं ही उन्हें छोड सुख-सुविधाओं से क्यों वंचित रहूं? जो सबको होगा वही मुझे होगा, यह विचार अन्-आध्यात्मिक है। व्यक्ति का पतन उसके अपने बुरे कर्म से होता है, इसलिए मुझे उससे अवश्य बचना चाहिए, यह आध्यात्मिक चेतना है। व्यक्ति-निर्माण की सही दिशा यही है। आन्दोलन की कल्पना है कि प्रत्येक व्यक्ति- (1) अभय, (2) सहिष्णु, (3) समभावी, (4) पवित्र, (5) सन्तुष्ट, (6) शान्त, (7) जितेन्द्रिय और (8) आग्रहहीन बने। नैतिक श्रद्धा का जागरण
पहले धारणाएं बदलती हैं, फिर व्यवस्था। परिस्थितियों का परिवर्तन हुए बिना मनुष्यों का परिवर्तन नहीं होता। परिस्थितियां नैतिकता के अनुकूल होती हैं, मनुष्य नैतिक बनता है। वे उसके प्रतिकूल होती हैं, मनुष्य अनैतिक बनता है, यह बहुतों की धारणा है। यह परिस्थितिवाद है। भौतिकता का उत्कर्ष इसी धारणा से हुआ है। अणुव्रत-आन्दोलन परिस्थितिवाद का प्रचार नहीं करता। वह आध्यात्मिक है। परिस्थितियों की अनुकूलता से उसका कोई विरोध नहीं है। किन्तु उनकी अनुकूलता में ही मनुष्य नैतिक रह सकता है- इस धारणा से विरोध है। मनुष्य परिस्थितियों की उपज नहीं है। उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। भोग-वृत्ति से वह दुर्बल बनता है। कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है, मनुष्य परिस्थिति से दब जाता है। आध्यात्मिकता का प्रवेश-द्वार है- त्याग। त्याग से आत्मा का बल बढ़ता है। आत्म-बल का मतलब है- भौतिक आकर्षण का अभाव। पदार्थ का आकर्षण मनुष्य में दैन्य भरता है। पदार्थ का आकर्षण टूटता है, आत्म-बल का सहज उदय हो जाता है। आत्मोदय की धारणा में परिस्थिति गौण बन जाती है।
यह सच है- परिस्थिति की प्रतिकूलता जन-साधारण के लिए एक प्रश्न है। किन्तु मनुष्य को परिस्थिति का दास बनाकर उसे नहीं सुलझाया जा सकता। परिस्थिति के रूपान्तर से मनुष्य की वृत्ति का रूपांतर हो जाता है। वह कोई नैतिक विकास नहीं है। साम्यवादी अर्थतन्त्र में एक प्रकार की अनैतिकता मिट जाती है, पर क्या अनैतिकता के सभी प्रकार मिट जाते हैं ? क्या उस व्यवस्था में अपराध और अपराधी नहीं होते ? क्या राजनैतिक स्पर्धा नहीं होती ? एकतन्त्र एक परिस्थिति पैदा करता है, जनतन्त्र दूसरी। पूंजीवाद एक परिस्थिति पैदा करता है, साम्यवाद दूसरी। इनमें नैतिकता के एक रूप का विकास होता है तो उसके दूसरे रूप का विनाश भी होता है। अनैतिकता का एक रूप
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