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________________ अणुव्रत आन्दोलन भौतिक हानि-लाभ सच और झूठ दोनों से हो सकते हैं। उनके आधार पर इन्हें धर्म और अधर्म मानने की असंगति नहीं होनी चाहिए। उन्हें उनके स्वतंत्र गुण-दोष से ही आंकना चाहिए। अर्थशास्त्र का नियम है- रुपये से रुपया आता है । नीतिशास्त्र का नियम हैआचरण से आचरण आता है । प्रचार की सीमा भी यही होनी चाहिए कि व्रती मनुष्य पैदा हों। उनसे व्रत की परम्परा आगे बढ़े। किन्तु जो लोग व्रत का नाम तक नहीं जानते, जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को नहीं समझते, उनकी हित - दृष्टि को ध्यान में रखकर व्रत का प्रचार किया जाएगा वह समाज का हित - पक्ष है - ऐसा हमें लगता है । 6.5 अणुव्रत के संदर्भ में नैतिकता 139 नैतिकता क्या है ? नैतिकता का अर्थ है व्यवहार की शुद्धि | समाज में परस्पर व्यवहार चलता है । उस व्यवहार में प्रामाणिकता बरतना, सचाई रखना- यह नैतिकता है। दूसरों के अधिकारों को हड़पने की चेष्टा नहीं होती, यह नैतिकता का मूल है। मूल बलहीन हो रहा है। इसलिए बहुत छोटी बातें भयंकर बन रही हैं। यदि उनका मूल दृढ़ होता तो इन छोटी-छोटी बातों को व्रत का रूप देने की आवश्यकता नहीं होती । व्रत संयम है। संयम का स्वरूप विभक्त नहीं होता । व्रत एक ही है। वह है अहिंसा । वैयक्तिक साधना में अहिंसा का अभिन्न रूप ही पर्याप्त था । उसका सामूहिक आचरण हुआ तब उसकी अनेक शाखाएं निकलीं। व्रतों का विकास हुआ। सत्य अहिंसा का नैतिक पहलू है । अपरिग्रह उसका आर्थिक पहलू है । अचौर्य और ब्रह्मचर्य उसके सामाजिक पहलू हैं। यथार्थ पर पदार्थ डालने के लिए हिंसा का प्रयोग होता है, तब वह असत्य कहलाती है। पदार्थ - संग्रह के लिए उसका प्रयोग होता है, तब वह परिग्रह कहलाती है । वासना का रूप ले वह अब्रह्मचर्य बन जाती है। चोरी का प्रश्न विकट है। युग रहा तर्कवाद का । लोग सारे मसलों को तर्क से हल करना चाहते हैं । कहा जाता है युग बदल गया, समाज की परिस्थितियां बदल गईं। बदली हुई समाज-व्यवस्था में अहिंसा आदि व्रतों का कोई उपयोग नहीं रहा । वे आज अवैज्ञानिक हो गए हैं। पुराने जमाने में एक व्यक्ति को चाहे जितना धन -संग्रह करने का अधिकार था । इसलिए उसकी धनराशि का लेना चोरी माना गया। वर्तमान समाज-व्यवस्था में किसी भी व्यक्ति के अधिकार निरंकुश नहीं हैं। आज मान लिया गया है कि धन का अनावश्यक संग्रह किसी के पास नहीं होना चाहिए। यदि कोई करे तो उसका धन लूट लेना चाहिए। यह चोरी नहीं है, चोरी है अनावश्यक संग्रह करना । हो सकता है, सामाजिक व्यवस्था और उसकी मान्यता के परिवर्तन के साथ चोरी की परिभाषा थोड़ी जटिल या विवादास्पद हो । पर उसका कोई अर्थ ही न रहे, यह तो अब तक सम्भव नहीं, जब तक व्यक्तिगत स्व जैसा अधिकार मनुष्य को मिला रहेगा और मनुष्य में अतृप्ति का भाव बना रहेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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