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________________ अणुव्रत आन्दोलन 131 जाता है। निमित्त-परिवर्तन का सिद्धान्त व्यापक है। प्रत्येक कार्य की प्रारम्भ-दशा का निमित्त आगे चलकर उसी रूप में नहीं रहता। वस्त्र के निमित्त-परिवर्तन की स्थिति देखिए, शीत और गरमी से बचाव करने के लिए वस्त्र परिधान चला। कुछ समय बाद दैहिक अपेक्षा जो थी, वह काल्पनिक बन गई। दूसरा निमित्त बना लज्जा-संरक्षण। लाज-रक्षा का विकास होते-होते सारा तन कपड़ों से ढंक गया। इससे आगे विकार आवरण भी एक निमित्त बना ।शोभा, अभिमान और स्पर्धा- ये भी निमित्त बन चुके हैं। वस्त्र परिधान की जो उपयोगिता थी, उसे सौंदर्य और स्पर्धा ने रौंद डाला। समाज की धुरी अर्थ-नीति है, इसमें कोई सन्देह नहीं। अर्थ-नीति के आधार पर समाज बनता-बिगडता है। उसकी अच्छाई और बुराई के आधार पर वह अच्छा और बुरां बनता है। जब अर्थ-नीति श्रमनिष्ठ, स्वावलम्बी और आत्म-निर्भर होती है, तब समाज भी अपने श्रम पर भरोसा करने वाला और अपरिग्रह की ओर आगे बढ़ने वाला होता है। अर्थनीति जब अशिक्षित और शक्तिहीन वर्ग के श्रम का अनुचित लाभ उठाने की होती है, तब समाज विलासी, आलसी और संग्रहनिष्ठ बनता है। समाजवाद अर्थ-नीति को सर्वसाधारण उपयोगी यानी शोषण-हीन बनाने की प्रवृत्ति में संलग्न है। वैसा कुछ बनता-सा दीख पड़ता है। फिर भी वह सत्ता और भय पर आश्रित है। अपरिग्रह का सिद्धान्त आत्माश्रित है। वह हृदय में आये तो सत्ता के दबाव के बिना ही समाज शोषणहीन बन जाए। पर जैसे जाति के आधार पर छोटा-बड़ा होने की मान्यता मिटे बिना जातिवाद नहीं मिटनेवाला है वैसे ही धनराशि प्रतिष्ठा, बड़प्पन, विलास और सुविधातिरेक का साधन बनी रहेगी, उस स्थिति में न अपरिग्रह-वृत्ति जीवन में आने वाली है और न धन का आकर्षण छूटने वाला है। व्यवस्था सुधार समाजवादी योजना का फलित है। अपरिग्रह के सिद्धांत का फलित है वृत्तियों का सुधार । वृत्तियों के सुधार के लिए व्यवस्था सुधार का परिणाम वृत्ति-सुधार या हृदयपरिवर्तन होना चाहिए। इस भूमिका में दोनों के साध्य एक न होने पर किंचित् सापेक्ष बन पाते हैं। सुधरी हुई व्यवस्था के बिना वृत्तियों के सुधरने में कठिनाई आती है। इसलिए साधारणतया (विशेष जागरूक व्यक्तियों को छोड़कर) वृत्ति-सुधार को शोषणहीन व्यवस्था की अपेक्षा रहती है। वृत्ति-सुधार हुए बिना व्यवस्था-सुधार टिकाऊ नहीं बनता। इसलिए व्यवस्थासुधार को वृत्ति-सुधार की अपेक्षा रहती है। आडम्बर और विलासपूर्ण जीवन रहे, तब अणुव्रतों की कल्पना सफल नहीं हो सकती। अणुव्रती अणुव्रतों का पालन भी करे और जीवन को आर्थिक भार से बोझिल बनाये रखे, ऐसा बनना सम्भव नहीं। विलासी जीवन में धन चमकता है। सादगीपूर्ण जीवन में व्रत चमकते हैं। धन और व्रत, दोनों एक साथ नहीं चमक सकते। न्याय साधनों द्वारा जीवन-निर्वाह उपयोगी धन मिल जाता है किन्तु आडम्बर और विलास योग्य धन नहीं मिलता। विलास के लिए धन का अतिरेक और उसके लिए अन्यायपूर्ण तरीकों का अवलम्बन ऐसा होता है कि व्रत टूट जाते हैं। इसलिए अणुव्रती को जीवन-व्यवस्था का . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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