________________
130
अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह- ये पांच दोष हैं। इन में मूल दोष हिंसा है। उसकी वृत्ति विविध संयोगों में विविधमुखी बन जाती है। असत्य और चोरी, ये दोनों देह की अपेक्षाएं नहीं हैं। इसलिए ये वैदेहिक हैं। मुख्यतया ये सामाजिक स्थिति-सापेक्ष हैं । सामाजिक जीवन में जैसे यश, सम्मान, स्नेह की प्रवृत्तियां उभरती हैं, वैसे ही विरोध, कलह, निंदा, चुगली, दोषारोपण
और भय की वृत्तियां भी प्रबल बनती हैं। इन वृत्तियों की निमित्त पा हिंसा का बीज असत्य के रूप में फूट पड़ता है। असत्य मन, असत्य वाणी और असत्य चेष्टा मनुष्य में आ जाती है, फिर वह असत् के सत्करण और सत् के असत्करण में लग जाता है। संक्षेप में असत्य के चार कारण बतलाए हैं :
(1) क्रोध, (2) लोभ, (3) भय, (4) हास्य-कुतूहल ।
क्रोध के आवेश में आकर व्यक्ति यथार्थता को बदल देता है । यथार्थ का निरूपण इच्छा-पूर्ति में बाधक बनता है तब अन्यथा निरूपण का भाव बनता है। इसी प्रकार अनिष्ट की आशंका और हंसी-मजाक भी असत्य की इमारत है।
प्रतिष्ठा-बड़प्पन, पदार्थ का आकर्षण और अतृप्ति- ये चोरी के निमित्त बनते हैं। अकेलेपन में प्रतिष्ठा या बड़प्पन के भाव पैदा ही नहीं होते । यह पर-सापेक्ष वृत्ति है। पदार्थ के प्रति आकर्षण अकेलेपन में भी होता है किन्तु वहां वस्तु का उपभोक्ता दूसरा नहीं होता, इसलिए उसे चुराने की वृत्ति नहीं जागती। जो स्थिति पदार्थ के आकर्षण की है, वही अतृप्ति की है। अतृप्त या असंतुष्ट व्यक्ति का वस्तु-संग्रह आवश्यकता-निर्भर नहीं होता। वह केवल लालसा-निर्भर होता है, इसलिए असंतुष्ट व्यक्ति आवश्यकता के बिना भी दूसरे की वस्तु चुरा लेता है। इस प्रकार असत्य और चोरी, ये दोनों परिस्थितिसहाचरित अपेक्षाएं हैं। तात्पर्य की भाषा में बुराई का बीज व्यक्ति की अपनी अशुद्धि है। सामाजिक परिस्थिति का निमित्त पाकर वह अनेक रूप बन जाती है। हिंसा ही निमित्तभेद से असत्य और चोरी का रूप ले लेती है।
वैयक्तिक स्थितियां या दैहिक अपेक्षाएं दो कोटि की हैं- देह-प्रधान और मानसप्रधान। भूख-प्यास आदि देह-प्रधान अपेक्षाएं हैं और वासना, अब्रह्मचर्य, सुख-दुःख आदि मानस-प्रधान। अब्रह्मचर्य दैहिक है, फिर भी बाहरी निमित्त से उत्तेजित होता है, इसलिए परिस्थिति-सापेक्ष भी है। परिग्रह कुछ अंशों में दैहिक है,कुछ अंशों में वैदेहिक और बाहरी स्थिति सापेक्ष है। खान-पान भी परिग्रह है, इस दृष्टि से वह दैहिक भी है। परिग्रह के अधिक संचय का निमित्त सामाजिक परिकल्पना है, इस दृष्टि से वह वैदेहिक भी है। व्यक्ति का मापदण्ड धन बन जाता है। जिसके पास धन थोडा, वह छोटा और जिसके पास धन बहुत, वह बड़ा-ऐसी परिकल्पना आ जाती है। परिग्रह के संचय का निमित्त बदल जाता है, फिर वह जीवन-निर्वाह का साधन न रहकर विलास और बड़प्पन का साधन बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org