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________________ अणुव्रत आन्दोलन आज की दुनिया में यह मान्य हो चुका है कि अहिंसा को विकसित किए बिना विश्व - शान्ति कभी नहीं हो सकती। इसलिए बहुत सारे व्यक्ति अहिंसक बनना भी चाहते हैं, पर वे जीवन-क्रम को बदलते नहीं, अतः वे अहिंसक बन नहीं पाते । हिंसा की कमी परिग्रह की कमी पर निर्भर है और परिग्रह की कमी भोग की कमी पर। लोग चाहते हैं- भोग-विलास जो हैं, वे तो चलते ही रहें, परिग्रह भी कम न हो और हिंसा भी छूट जाए। कैसा है यह व्यामोह ! भोग-विरति के बिना जो हिंसा-विरति चाहते हैं, वे बुराई की जड़ को सींचते हुए भी परिणामों से बचना चाहते हैं । जो हिंसा - विरति या अहिंसा का विकास चाहते हैं, उन्हें समझ लेना है कि हिंसा के कारणों को त्यागे बिना हिंसा को त्यागने का परिणाम केवल दंभ होगा, अहिंसा नहीं । आचार्य श्री तुलसी ने अपनी उदात्त वाणी में कहा- "जीवन को हलका बनाओ", क्योंकि अर्थ के गुरुतम भार से दबा जीवन पवित्र नहीं बन सकता । जीवन-शुद्धि के लिए अहिंसा के द्वारा जिसको जीवन बदलना है, वह न दूसरों से अनावश्यक श्रम लेता है और न किसी का शोषण करता है । निश्चय में अहिंसा आती है, तब व्यवहार में स्व-निर्भरता अपने-आप आ जाती है । अथवा यों कहना चाहिए कि व्यवहार में स्व-निर्भर रहने वाला ही अहिंसा का विकास कर सकता है। कोई श्रम करे या न करे, इससे अहिंसा का संबंध नहीं, किन्तु दूसरे से श्रम लेने के लिए परिग्रह व परिग्रह के लिए हिंसा इस तरह हिंसा को बढ़ावा मिलता है। स्वयं श्रम करने वाले को अधिक परिग्रह की अपेक्षा नहीं होती । अधिक परिग्रह से निरपेक्ष व्यक्ति अधिक हिंसा में नहीं फंसता । इस प्रकार स्व-श्रम निर्भरता से हिंसा को अधिक उत्तेजना नहीं मिलती। निष्कर्ष यह निकला कि अपना आवश्यक कार्य अपने आप करने से समाज में अभोग, अपरिग्रह और अहिंसा का जैसा जीवित विकास हो सकता है, वैसा विकास दूसरों के श्रम पर निर्भर रहने वाले समाज में नहीं हो सकता। 127 एक नयी विचारधारा आयी है, जिसका विधान है - अधिक उत्पादन करो आवश्यकताएं अधिक होती हैं और उत्पादन कम, इस कारण समस्याएं बढ़ती हैं। आवश्यकताएं बढ़ें, वैसे ही उत्पादन भी बढ़ें तो समस्या पैदा न हो। यह हिंसा को बुलावा है । वस्तुएं थोड़ी हों, यह कोई अच्छाई नहीं, अधिक हों, यह बुराई नहीं, उन्हें कम करने की जो भावना है, वह अच्छाई है और उन्हें बढ़ाने की जो भावना है वह बुराई है। पहले वस्तुओं को बदलने की इच्छा पैदा होती है। इच्छा ही तो अन्त में संस्कार बन जाती है। संस्कार की पूर्ति के लिए फिर स्पर्धा चलती है। उसमें औचित्य - अनौचित्य का कुछ विचार ही नहीं रहता और इस तरह बुराइयों का द्वार खुल जाता है। जब वस्तुओं को कम करने की वृत्ति बनती है, तब व्यक्ति को बुरे साधन अपनाने की आवश्यकता नहीं रहती। यहीं से अच्छाई का अंकुर प्रस्फुटित होता है। इसे कौन नहीं जानता कि अधिक उत्पादन की स्पर्धा ने हिंसा को प्रत्यक्ष निमन्त्रण दिया है! व्यापारिक स्पर्धा, राज्य - विस्तार या अधिकार- प्रसार की स्पर्धा ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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