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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग (2) अति-संग्रह
प्रत्येक मनुष्य सुख-सुविधा और अधिकार की उच्चता चाहता है । यही चाह उसे दूसरों के प्रति अन्याय और अधिकारहरण की ओर ले जाती है।
इस परिस्थिति के संदर्भ में अणुव्रत का लक्ष्य इस प्रकार है :
(क) जाति, वर्ण, संप्रदाय, देश और भाषा का भेद-भाव न रखते हुए मनुष्य-मात्र को आत्म-संयम की ओर प्रेरित करना।
(ख) मैत्री, एकता, शान्ति और नैतिक मूल्यों की रचना।
हम अणुव्रत-आंदोलन के द्वारा ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिससे प्रवाहित होकर जनता
(1) मनुष्य जाति एक है- इस विश्वास की सुदृढ़ भूमिका पर रंग और जाति के भेद से होने वाली असमानता को नष्ट करे।
(2) आक्रमक नीति का परित्याग कर निःशस्त्रीकरण करे।
(3) आध्यात्मिक भावना के उन्नयन के द्वारा अधिकार-विस्तार की वृत्ति को नियंत्रित करे।
(4) आज का दृष्टिकोण कोरा आर्थिक बनता जा रहा है, उसे बदलने का प्रयत्न करे।
(5) प्रत्येक आवश्यक कार्य को आध्यात्मिकता से संतुलित रखे।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो हिंसा, आक्रमण और प्रतिशोध की श्रृंखला बहुत लम्बी हो चलेगी। व्यवस्था-सुधार या वृत्ति-सुधार
इच्छा और आवश्यकता की वृद्धि से विकास होता है- यह धारणा मिथ्या ही नहीं, घातक भी है। वैषम्य का जो विकास हुआ है, वह उसको निरंकुश छोड़ने का ही परिणाम है। सीमित इच्छाएं और सीमित आवश्यकताएं मनुष्य को मूढ़ नहीं बनातीं । असीमित इच्छाओं और असीमित आवश्यकताओं ने युग को वस्तु-बहुल बनाकर मनुष्य को रक्त का प्यासा बना डाला है और अब वह सारी सामग्री को अकेला ही निगल जाना चाहता है।
निरंकुश इच्छाएं ही शोषण करती हैं और युद्ध भी जो अभी-अभी लड़े गए थे, इन्हीं की देन है। प्रतिहिंसा से पीड़ित मनुष्य शान्ति चाहता है पर अशांति का मूल जो इच्छा का अनियंत्रण है, उसे मिटाना नहीं चाहता- यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।
शांति का निर्विकल्प मार्ग है- भोग का अल्पीकरण । भोग के अल्पीकरण से परिग्रह का अल्पीकरण होगा और उससे हिंसा और असत्य का।
निर
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