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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग आज के युग को अणुबमों की स्पर्धा का युग बना दिया है। स्पर्धा का अन्त सीमा में होता है, विस्तार में नहीं। अतृप्ति का अन्त त्याग में होता है, आसेवन में नहीं। यदि उत्पादनवृद्धि के द्वारा समस्याओं को सुलझाने की दिशा खुली रही तो अनुमान नहीं किया जा सकता कि मानव का अन्त होने से पहले स्पर्धा का कभी अन्त भी हो सकेगा।
आंदोलन के व्रत संयममय हैं। संयम निषेध-प्रधान होता है। करने से पहले जो नहीं करना चाहिए, वहाँ रुकना आवश्यक है। टॉल्सटाय ने अनुभव किया कि "एक वर्ग दूसरे वर्ग को गुलाम बनाए रखता है, वह दूसरों के दुःख और पाप का कारण है।" इस पर से उन्होंने एक सीधा-सादा-सा अनुमान निकाला--" मुझे दूसरों की सहायता करनी हो तो मैं जो दुःख मिटाना चाहता हूं उसे मुझे पहले वे दुःख देने बंद कर देने चाहिए।" उन्होंने बताया--"धनिकों के पास से लेकर गरीबों को देने की जो मेरी योजना थी, उसकी निरर्थकता मैं जान गया। मैंने देखा कि पैसा पैसे के रूप में हितकारी नहीं है, इतना ही नहीं, उल्टा अनिष्टकर है। कारण गरीब का हित तो उसकी अपनी मजदूरी का फल उसी के पास रहे, इसी में है।"
_ सुख न लूटना और दुःख न देनो-यह संयम का सूत्र है और शाश्वतिक सत्य है। सुख देना और दुःख दूर करनो-यह उपयोगिता का सूत्र है और सामयिक सूत्र है। अर्थप्राचुर्य से समाज का विकास नहीं होता- ऐसा नहीं माना जाता । विकास की दशा भले ही दूसरी हो, प्राचुर्य को आवश्यकता से आगे नहीं ले जाना चाहिए। उपयोगिता से आगे प्राचुर्य जाता है, वह उन्माद लाता है।व्रत-विकास की दिशा में अर्थ-संग्रह कि कल्पना नहीं आती। अर्थ-दान की बात ही कहाँ रही? अर्थ संग्रह को उचित मानने पर विनियोग की बात आती है। उसकी (विनियोग) ही एक शाखा दान है। व्रत का अर्थ है- ममत्व हटे । स्वामित्व हटे। स्वामित्व हटने की पहली शर्त है ममत्व हटे। पदार्थ-संग्रह में अपना अनिष्ट न दीखे, तब तक ममत्व-बुद्धि नहीं मिटती। संग्रह में अनिष्ट की भावना अध्यात्म दृष्टि से मिलती है। उसका आदर्श है कोई कुछ भी संग्रह न करे। अपने से बाहर की वस्तु को अपनी न माने और न उसे अपने अधिकार में ले। यह कठोर साधना है। इसके लिए जीवन की वृत्तियों का महान् बलिदान चाहिए । ऐसा न कर सके, उनके लिए फिर मध्यम मार्ग है। उसकी दृष्टि है-जीवन-निर्वाह की। आवश्यकता से अधिक संग्रह न किया जाए। जितना संग्रह उतना बंधन-- यह व्रत-ग्रहण की पूर्व-भूमिका है। संग्रह द्वारा इष्ट-पूर्ति की कल्पना होती है, तब वह साध्य जैसा बना जाता है। आत्म-विश्वास की कमी है, उससे संग्रह को प्रोत्साहन मिल रहा है। लखपति-कोटिपति भी धन कमाने की दौड़ में जुटे रहते हैं। बुढ़ापे में क्या होगा, बाल-बच्चों का क्या होगा-ऐसी आशंकाएं उन्हें सताती रहती हैं। आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिए अर्थ-व्यवस्था की स्थिरता अपेक्षित होती है। प्रत्येक व्यक्ति को कार्य मिल जाए
1. त्यारे करीशुं शृं? पृ. 165
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