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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग
(4) स्त्रियों को धमका, फुसला, बहका, लुभाकर विवाह करना, (5) झूठे राशन कार्ड बनाना, (6) जुआखाना खुलवाना - ऐसी जघन्य प्रवृत्तियां चलती हैं, वह उन्नत सांस्कृतिक चेतना वाला नहीं होता, इसलिए व्यापार संबंधी अनैतिकतानिवारण की साधना का सामाजिक मूल्य भी कम नहीं है।
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व्रत सारे-के-सारे वैयक्तिक होते हैं। धन सामाजिक होता है। एक की कमाई का लाभ अनेक को मिल जाता है। व्रत में वैसी बात नहीं है। एक व्यक्ति की व्रत-साधना का लाभ दूसरों को नहीं मिलता। प्रासंगिक लाभ तो मिलता है। एक व्यक्ति अपनी भलाई के लिए कोई भी बुरा काम नहीं करता, वह समाज की भलाई में बिना कुछ किए अपना योग दे देता है। अनावश्यक संग्रह नहीं करने वाला दूसरों की आवश्यकता पूर्ति का सहजभाव से निमित्त बन जाता है । यह प्रासंगिक लाभ की बात हुई। हमारा तात्पर्य व्रत के मौलिक लाभ से है । उसका प्रतिदान नहीं होता। शांति उसी को मिलती है, जो व्रत के द्वारा अपनी वृत्तियों को शोधन करता है, वह दूसरों को नहीं मिलती। सगे-संबंधियों को भी उसका दायभाग नहीं मिलता। प्रेरणा मिल सकती है, निमित्त मिल सकता है, पर शुद्धि का समर्पण नहीं होता-यही उनका वैयक्तिक स्वरूप है।
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व्रतों को 'वैयक्तिक' इस अर्थ में ही कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति की निजी स्थिति को ही प्रभावित करने वाली बुराई का नियंत्रण करते हैं । व्यक्ति के अलावा छोटे या बड़े समूह को प्रभावित करने वाली बुराई का नियंत्रण करने वाले व्रत सामाजिक हो जाते हैं। वृत्ति-शोधन की अपेक्षा दोनों प्रकार के व्रत एक रूप हैं यह संज्ञा-भेद प्रासंगिक परिणाम या दूसरों पर होने वाले सहज परिणाम की अपेक्षा से है ।
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अभ्यास
1. अणुव्रत की शब्द संरचना पर प्रकाश डालते हुए जीवन में व्रत की आवश्यकता को सिद्ध करें ।
2. अणुव्रत के निषेधात्मक व्रतों से जीवन में विधायकता का उदय कैसे हो सकेगा ?
3. क्या व्रत - साधना और सामाजिक मूल्यों को साथ-साथ निभाना संभव है? यदि हां तो कैसे ?
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