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________________ अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग भी अनेक समस्याएं हैं । उनमें चारित्रिक समस्या को प्रथम स्थान दिया जा सकता है। जिस समाज में चरित्र- -बल उन्नत होता है, वहां आर्थिक समस्या जटिल नहीं होती । चरित्र-बल के अभाव में ही आर्थिक समस्या उलझती है। 122 अणुव्रत स्वीकार करने से क्या भला होता है जिससे कि समाज को अणुव्रती होने की प्रेरणा मिले ? सामाजिक मनुष्य जो व्यवहार दूसरों से नहीं चाहता उसकी रुकावट अणुव्रत का व्यापक प्रचार होने पर ही संभव हो सकती है। क्या आप चाहते हैं कि आपको पानी मिला दूध मिले ? क्या आप चाहते हैं कि आपको मिलावटी आटा मिले ? क्या आप चाहते हैं कि आपको नकली और मिलावटी मसाले मिले ? क्या आप चाहते हैं कि आपको नकली औषधियां मिलें ? क्या आप चाहते हैं कि कोई दुकानदार असली दिखाकर नकली वस्तु दे। क्या आप चाहते हैं कि कोई आपको ठगे? आप इन सबको नहीं चाहते । यही अणुव्रत को स्वीकार करने की प्रेरणा है। जहां आदमी को अपना स्वार्थ छोड़ना पड़े वहां अणुव्रती बनने से क्या लाभ ? जो लोग अपने स्वार्थ को सर्वाधिक प्रधानता देते हैं, अनैतिक आचरण से धनार्जन करने या सत्ता हथियाने में जिन्हें लाभ दिखाई देता है, उन्हें अणुव्रत स्वीकार करने में कोई लाभ दिखाई नहीं देता, किन्तु सभी लोग यदि अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को प्रधानता देने लग जाएं तो समाज की व्यवस्था टिक नहीं पाती । 5.7 व्रत साधना : सामाजिक मूल्य व्रतों की शब्दावली में गूढ़ता नहीं है। उनमें भावनाएं गूढ़ हैं। उनकी स्पष्ट रेखाओं को देखना जरूरी है। संकल्पपूर्वक घात नहीं करने का एक व्रत है। उद्देश्यहीन हिंसा - आवेग-क्रोध, लालच, अधिकार, अभिमान, कपट की स्थिति में होने वाली हिंसा, संकल्पी हिंसा है। इसका पहला रूप शैकिया मनोवृत्ति से बनता है-शिकार खेलना, भैंसों या दूसरे जानवरों के साथ लड़ते हुए उन्हें मारना, ये और इस कोटि के दूसरे कार्य जीवन के आवश्यक अंग नहीं होते, केवल क्रीड़ा या मनोरंजन मात्र होते हैं । इसलिए अणुव्रती उनसे बचें। दूसरा रूप साम्राज्यवादी व संग्रहवादी मनोवृत्ति, जातीय और साम्प्रदायिक विद्वेष की मनोवृत्ति से बनता है - आक्रमण करना, आग लगाना, भड़काना, विद्रोह फैलाना- ऐसी प्रवृत्तियां संकल्पी हिंसा के ही रूप हैं। 'संकल्पपूर्वक घात नहीं करना' - इसका अर्थ न मारने तक ही सीमित नहीं है किन्तु हिंसा को उत्तेजना मिले, वैसी प्रवृत्तियां न करना - यह भी उसी में समाया हुआ है । इसलिए अणुव्रती ऐसी प्रवृत्तियों से दूर रहें | आक्रमण करना - यह सामाजिक व राष्ट्रीय महत्व से भी आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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