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________________ अणुव्रत का स्वरूप 121 आत्मसात् हो जाता है। इसलिए अल्पसंख्या की बात आंदोलन के सामने गौण है। प्रधान बात यह है कि यह शाश्वत सत्य और समाज की मूलभूत अपेक्षा की भित्ति पर खड़ा हुआ है। समाज के साथ एक-रस होने की संभावनाएं इसमें रही हुई हैं। निषेधात्मक कर्तव्य सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं । जर्मन दार्शनिक कांट ने मनुष्य के कर्तव्यों को निश्चित ऋण और अनिश्चित ऋण - इस प्रकार दो भागों में बांटा है। जो अनिवार्य आदत है, वह निश्चित ऋण-कर्तव्य है। अधिकतर ये कर्तव्य निषेधात्मक होते हैं, अर्थात वे मनुष्य को किसी विशेष प्रकार के अनुचित कार्य से रोकते हैं। दूसरी ओर के कर्तव्य विधेयात्मक हैं। निषेधात्मक कर्तव्य सार्वकालीन और सार्वदेशीय होते हैं और विधेयात्मक इनके विपरीत होते हैं अर्थात् वे देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं, अतएव उन्हें निश्चित नहीं कहा जा सकता। आंदोलन के व्रत निश्चित कर्तव्य की भूमिका के हैं, इसीलिए उनका स्वरूप अधिकतया निषेधात्मक है। ___5.6 अणुव्रत की प्रेरणा व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों का परिमार्जन करे-यह व्रत-ग्रहण की दृष्टि है। एक ही वृत्ति के अनेक रूप और उसकी अभिव्यक्ति के अनेक मार्ग होते हैं । वृत्ति का शोधन नहीं होता, केवल रूप और मार्ग का निरोध होता है, तब वह मिटती नहीं, रूपांतरित व मार्गान्तरित हो जाती है। बुराई नहीं मिटती, उसके रूप और प्रकट होने का मार्ग बदल जाता है। अणुव्रती का ध्येय व्रतों की भाषा में सीमित नहीं है। ध्येय हे-जीवन की शान्ति । उसके साधन इतने ही नहीं हैं, आगे और बहुत हैं। बुराइयां अशान्ति लाती हैं। वे भी इतनी ही नहीं हैं, जिनका कि यहां निषेध हुआ है। व्यक्ति की असीम योग्यता का कर्तृत्व शक्ति में हमें विश्वास है। उसका सुप्त मानस जागरण का संकेत मिलने पर जाग उठता है । जागरण का क्रम किसी का लम्बा और किसी का छोटा हो सकता है। जागरण के बाद आत्म-नियमन की बात आती है। यह भी किसी के लिए दीर्घ प्रयत्न-साध्य होता है और किसी के लिए स्वल्प प्रयत्न -साध्य। क्या आज की सबसे बड़ी समस्या गरीबी नहीं है ? अवश्य ही गरीबी सबसे बड़ी समस्या है, किन्तु ध्यान देने पर प्रतीत होगा कि व्यवहार की अशुद्धि उससे भी बड़ी समस्या है, गरीबी को बनाये रखने वाली समस्या है। क्या अणुव्रत से आर्थिक समस्या को सुलझाने में योग मिल सकता है ? ___ आर्थिक समस्या को सुलझाने का प्रत्यक्ष साधन है-प्रचुर उत्पादन और उसका समुचित वितरण। किन्तु मनुष्य की समस्या केवल आर्थिक ही नहीं है, और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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