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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग प्रवृत्तियों के लिए अभ्यास या साधना आवश्यक नहीं होती। ये जीवन की सहज अपेक्षाएं हैं। उनकी शिक्षा भी तभी आवश्यक होती है, जबकि समाज स्व-नियंत्रण की बात भूल जाता है। स्व-नियंत्रण से मिलता कुछ भी नहीं, कुछ बनता भी नहीं, किन्तु यह सब अच्छाइयों की जड़ है, इसीलिए इसके अभ्यास की पुनरावृत्ति करनी ही होगी। जिन राष्ट्रों में नैतिकता की ऊंची भावना है उनमें आत्म-नियंत्रण का भाव भी विकसित है। वे कठिन स्थिति को झेलने के लिए अपने पर काबू पा सकते हैं। कठिनाई व्यक्ति, समाज और राष्ट सब पर आती है। निरोधक-शक्ति वाले बिना घबराये उसे लांघ जाते हैं और जो निरोधक-शक्तिहीन होते हैं, वे उसमें डूब मरते हैं। अधिकांश मानसिक रोग और बहुत सारे शारीरिक रोग इसी निरोधक शक्ति की कमी के कारण होते हैं। आत्महत्याओं का भी यही प्रधान कारण है, और भी अनेक बुराइयां इसी के अभाव में पनपती हैं। इसलिए अणुव्रत-आन्दोलन ने इस मूलभूत तथ्य को पकड़ा है। उसके लगभग सारे व्रत व्यक्ति को निरोधक-शक्ति की साधना की ओर ले जाते हैं। उनका हार्द- "मत करो, मत करो," इतना ही नहीं है, किन्तु 'मत करो'- इसके पीछे नियंत्रण-शक्ति की विराट् साधना जो छिपी हुई है, साध्य वह है। अमुक मत करो- ये उसी साधना के साधन हैं जो व्यक्ति के सद्विवेक और भलाई की मौलिक वृत्ति का जागरण किये देते हैं। ये व्रत केवल प्रतिरोध-शक्ति के विकास की ओर ले जाने वाली दिशाएं हैं। व्रती बनने वाले इन्हें ही साध्य मानकर न रुकें। आलोचना करने वाले साध्य के बाहरी रूप में ही न उलझें। दोनों व्रती और आलोचक आगे बढ़ें। साध्य की विराट सत्ता को देखें। वहां उन्हें वह सत्य दिखाई देगा, जो स्पष्ट होते हुए भी आंखों से परे है और जिसका अभ्यास समाज-धारणा, राष्ट-धारणा और मोक्ष-धारणा सभी धारणाओं का मूल है। समाज में प्रतिरोध-शक्ति कम हुई है। उसके अभाव में बुराइयां अधिक पनपी हुई हैं। इसलिए कुछ मत करो, जो करो उसमें अनावश्यक, अनुपयोगी और बुरा मत करो यह निषेध पक्ष निष्क्रियता या अकर्मण्यता-सा लग रहा है, पर यह अकर्मण्यता नहीं, कर्मण्यता का परिष्कार या शोधन है। एक शोषक और लुटेरा भी कर्मण्य हो सकता है और होता भी है किन्तु वह अनियंत्रित और अपरिष्कृत कर्मण्यता है। कर्मण्यता का परिष्कार नियंत्रण से ही हो सकता है। समाज उसे भुलाये हुए है। इसीलिए वह कठोर कार्य लग रहा है। उसकी साधना भी लम्बा समय ले सकती है, भूलें भी बहुत हो सकती है। बुराई भी सहसा नहीं आती। उसका भी क्रमिक विकास होता है। "पहले-पहल बुराई करते घृणा होती है। दूसरी बार संकोच होता है। तीसरी बार संकोच मिट जाता है। चौथी बार साहस बढ़ जाता है और फिर वह सहज बन जाती है।" यह बुरी प्रवृत्ति का अभ्यास-क्रम है। उसके संस्कार पकने में पीढ़ियां गुजर जाती हैं। भलाई के लिए भी यही क्रम है। भले संस्कार दिनों, महिनों या वर्षों में ही एक-रस नहीं बन जाते। उसके परिणाम और मूर्त प्रवृत्तियां तो और अधिक लम्बा समय लेती हैं। पहले तो सिर्फ समाज के थोड़े आदमी ही आगे आते हैं, फिर प्रयत्न होते-होते वह समाज व्यापी बन जाता है, सहज भाव से
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