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________________ अणुव्रत का स्वरूप 119 हो किन्तु रचनात्मकता इसी के आसपास फलती-फूलती है। इसलिए हमें कोरी रचानात्मक प्रवृत्ति का मोह छोड़ कुछ अरचनात्मकता को भी गति देनी चाहिए। 5.5 प्रतिरोधात्मक शक्ति व्रत इच्छा का स्वेच्छाकृत नियमन है। इसलिए वह एक विशिष्ट साधना है। यह सहज प्रवृत्ति पर अंकुश है। प्रतिरोधात्मक शक्ति की अपेक्षा समाज में विधेयात्मक शक्ति अधिक होती है। व्यक्ति जितना करता है, उतना नियंत्रण नहीं रख पाता। प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास कम मात्रा में होता है, तभी प्रवृत्तियां बुरी बनती हैं। प्रायः सुनने को मिलता है- अणुव्रत-आन्दोलन के व्रत नकारात्मक हैं- नेगेटिव हैं। इनमें विधेयात्मक नहीं जैसा है- 'पोजिटिव' पक्ष नहीं जैसा है। आलोचना सही है। इसमें व्रत-परम्परा के ह्रास का इतिहास बोल रहा है। नकारात्मक-शक्ति का महत्त्व प्रकाश में नहीं आ रहा है। इसीलिए यह आलोचना होती है और इसीलिए ये बुराइयां चलती हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, विलास या चरित्र-दोष और संग्रह- ये पांच बुराई के प्रवाह हैं। शेष बुराइयां इन्हीं की छोटी-बड़ी शाखाएं हैं। कोई व्यक्ति क्रूर क्यों बनता है ? अनुशासनहीन क्यों बनता है ? असत्य क्यों बोलता है ? चोरी क्यों करता है ? विलासी क्यों बनता है ? संग्रह क्यों करता है ? इनके तथ्यों को खोजिए। ये सब परिस्थिति की विवशता से नहीं होते। आवरण स्थूल निमित्त है। मूल कारण व्यक्ति की प्रतिरोध या नियंत्रण का अभाव है। समाज की क्रियात्मक शक्ति अति विकसित है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ करता है। आवश्यक भी करता है और अनावश्यक भी। उपयोगी भी करता है और अनुपयोगी भी। अच्छा भी करता है और बुरा भी। विलास भी है- आराम से जीवन बिताने की वृत्ति भी है। आलस्य भी है- कुछ भी किये बिना सब कुछ पा लेने की भावना भी है। जिस व्यक्ति या समाज में नियंत्रण या निरोधशक्ति का उचित मात्रा में विकास होता है, वह आवश्यक, उपयोगी और अच्छा ही कार्य करता है। जिनमें निरोधशक्ति का विकास औचित्य से अल्प होता है, वे आवश्यक, उपयोगी और अच्छा कार्य करने के साथ-साथ अनावश्यक, अनुपयोगी और बुरा कार्य भी कर लेते हैं। जिनमें निरोध-शक्ति नहीं होती, वे आवश्यक, अनुपयोगी और बुरे कार्यों में ही रस लेते हैं। इस तीसरी श्रेणी के व्यक्ति विलासी, आलसी, पेटू और लुटेरे होते हैं। रचनात्मक कार्यों के द्वारा समाज को उन्नत धरातल पर ले जाने वाले यह न भूलें कि प्रतिरोध शक्ति का विकास हुए बिना वैसा होना सम्भव नहीं है। निषेघ जीवन का शुद्धि-पक्ष है। विधि [कार्य] का अति-पक्ष या अवांछनीय पक्ष इसी के अभाव में बलवान बनता है। निषेध की शाश्वत-सत्यता तक मनोविज्ञान अभी नहीं पहुंच पाया है। इसीलिए केवल रचनात्मक पक्ष को ही एकांगी महत्त्व दिया जा रहा है। रचनात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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