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________________ 118 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग गरीबी का निराकरण और रोटी का प्रश्न समाजवाद, साम्यवाद व सर्वोदय से सुलझता है। इसके आधार पर हम घाटे-नफे को कूतना नहीं चाहते हैं। हमारी कूत का आधार यह है कि मानव-स्वभाव में कौन कितना परिवर्तन लाता है, संयम के मूल्यांकन में कौन कैसी प्रतिक्रिया पैदा करता है ? सत्ता और शक्ति पर आधारित वाद संयम के विकास को गति नहीं देते, भले फिर वे एक बार लोगों को भुलावे में डाल दें। अणुव्रत-आन्दोलन पदार्थ की सुविधा के साथ-साथ संयम की ओर बढ़ने की दिशा नहीं है। वह संयम के स्वतन्त्र मूल्यांकन और विकास की दिशा है। दूसरों को पदार्थ की सुविधा मिले, इसलिए संयम करना उसका अवमूल्यन करना है। संयम का अपना स्वतंत्र मूल्य है। वह जीवन की पवित्रता के लिए किया जाये। पवित्रता के साथ वैयक्तिकता का विकास हो जाता है। उसके विकास में साधनों की अपेक्षा स्वल्प हो जाती है। आवश्यकता-पूर्ति के साधनों की दुनिया में छोटे-बड़ेपन का भाव विकसित नहीं होता। बड़प्पन आए बिना झूठे मूल्यों का आरोपण नहीं होगा यह 'रचनात्मक' युग के निर्माण की सही दिशा है। - रचनात्मक आन्दोलन बहुत चल रहे हैं। वे जीवन की सुख-सुविधा के कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। प्राथमिक कठिनाइयों के निवारण की दिशा देते हैं। अणुव्रत-आन्दोलन के पास ऐसा सीधा कोई कार्यक्रम नहीं है, फिर भी इस एक अरचनात्मक आन्दोलन को हमारे भाई सहन कर लें तो कोई बहुत बड़ा हर्ज होने वाला नहीं दीखता। प्रश्न रह-रहकर यही उठता है क्या कोरे संयम का आन्दोलन सफल हो सकेगा? इसके लिए आप निश्चित हो जाइये। भलाई की एक रेखा भी विफल नहीं होती। यह पदार्थ नहीं है, जिसकी सफलता और विकास संख्या से मापा जाये। अन्धकार में प्रकाश की एक रेखा भी पथ दिखा सकती है। अणुव्रती वही होगा, जिसे पदार्थ का तीव्र मोह नहीं है। तीव्र मोह से संग्रह और संग्रह के लिए हिंसा की जाती है। अणुव्रती का मार्ग अहिंसा-प्रधान होगा। अल्प हिंसा, अल्प उद्योग एवं अल्प परिग्रह से जीवन में रचनात्मक प्रवृत्तियां स्वयं जुड़ जाती हैं। दूसरों के श्रम पर वही जी सकता है, जो महाहिंसा, महाउद्योग और महापरिग्रह का जीवन जीये। ऐसा व्यक्ति सफल अणुव्रती हो नहीं सकता। रचनात्मक प्रवृतियों से संयम कि ओर झुकाव हो भी सकता है और नहीं भी होता। संयम के पीछे स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता अपने आप आती है। ज्यों-ज्यों संयम का विकास करता है, त्यों-त्यों आत्म-निर्भरता बढ़ती जाती है। साधनाक्रम के अनुसार एक जिनकल्प की कक्षा है । उसके अधिकारी सारा काम अपने हाथों से करते हैं । बाहरी वस्तुओं से उनका लगाव बहुत ही कम होता है। इसमें सन्देह नहीं कि संयम ही सारी समस्याओं का समाधान है, भले फिर वह प्रत्यक्ष रूप से हो या अप्रत्यक्ष रूप से। वह स्वयं भले अरचनात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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