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अणुव्रत का स्वरूप
117 मनुष्य में परिणाम के प्रति जो अभिलाषा होती है, वह कारण के प्रति नहीं होती। वह स्वर्ग चाहता है, स्वर्ग की साधना नहीं चाहता। आज बहुत लोग चाहते हैं मिथ्या धारणाएं टूट जायें, कृत्रिम भेद-रेखाएं मिट जायें, सब समान हो जायें और आत्मनिर्भर बन जायें। यह परिणाम की चाह तीव्र हो रही है। कारण की चाह बहुत ही क्षीण है।
समाजीकरण इतना हो रहा है कि व्यक्ति कोरा यंत्र रह गया है। वैयक्तिकता की बात कोई सुनना ही नहीं चाहता। व्यक्ति का समाज से भिन्न जैसे अस्तित्व ही न हो. वैसे वह जकड़ा जा चुका है। क्या यह सही हुआ है ? सामूहिकता सहज अनुभूति नहीं है। वह कुछेक के दिल में विचारों से पनपी है और बहतों पर डंडे के बल से थोपी गयी है। आज का समाजवाद व्यक्तिवाद के विकृत स्वरूप की प्रतिक्रिया है। वह मनुष्यों के भौतिक हितों के स्तर को समतल बनाने में सफल भी हुआ है, किंतु वह अब भी परिणाम की धूरी के आसपास घूम रहा है, कारण की खोज बहुत दूर है। व्यक्तियों और वस्तुओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। आवश्यकता पूर्ति की चिन्ता का भार कम भी हुआ है, किन्तु मानवीय दुर्बलता का प्रतिकार नहीं हो सका। मान और अपमान, छोटा
और बड़ा होने की वृत्ति सामूहीकरण की तीव्र प्रतिक्रिया हो सकती है। उत्पादन बढ़ा है, श्रम का मूल्य बढ़ा है, किन्तु उसका आधार है- पदार्थ और समाज। यह सारा परिणामवाद है। इसमें रचनात्मकता के अभाव की प्रतिकार-शक्ति नहीं है। .
अणुव्रत आन्दोलन को 'अरचनात्मक' कहने में मुझे जरा भी हिचक नहीं होती। परिस्थितियों के भार से मनुष्य को रचनात्मक प्रवृत्ति की ओर ले जाने वाला वाद
और नीति क्षणिक उपचार है। वह मानव-स्वभाव का परिवर्तन नहीं है। मानव का स्वभाव [कहना चाहिए विभाव लेकिन वही आज स्वभाव जैसा हो रहा है] असंयम में रम रहा है, पदार्थ पर टिका हुआ है। अणुव्रत-आन्दोलन का लक्ष्य नया मोड़ देना है। उसे अपने-आप में टिका संयम में रमाना है। समस्या का स्थायी समाधान संयम है। मोह इतना बढ़ गया कि संयम की खोज कठिन हो रही है। व्यक्ति अकेला आता है और वैसा-का-वैसा चला जाता है। वह जीवन-भर सम्बन्धों की जोड़-तोड़ में रहता है। जानकारी का उपयोग कर्म में नहीं हो रहा है, यही मोह है। बुरे-भले को जान लेना ज्ञानमात्र है, बड़ी बात है बुराइयों को छोड़ भलाई के रास्ते चलना। इसमें बाधा डालने वाला मोह है। मोह और असंयम एक ही स्वभाव की दो अभिव्यक्तियां हैं। पदार्थ से मोह हटते ही संयम आ जाता है अथवा संयम जागते ही पदार्थ का मोह टूट जाता है। निर्मोहता ही संयम है। राजनीति के सारे वाद पदार्थ-मोह से जुड़े हुए हैं। मनुष्य मनुष्य में मोह व्याप्त है, इसीलिए वे सहजतया उनके गले उतर जाते हैं। बात स्पष्ट है। जहां तक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रश्न है वहां तक उनसे हमारा झगड़ा भी क्या है ? रोटी की व्यवस्था जीवन का सामान्य प्रश्न है। उसे कौन कैसे हल करता है, इसे हम महत्व ही क्यों दें ? हमें महत्त्व इसे देना चाहिए कि पदार्थ पर किसकी कैसी निष्ठा है? पदार्थ की निष्ठा में कमी आ सके, उसी में संयम के आन्दोलन की सफलता है।
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