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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग इस सतत-गति और क्रियाशील जगत् में अरचनात्मक भी कुछ है, यह नहीं माना जा सकता किन्तु यह दार्शनिक बात है। जमाना दर्शन से दो कदम आगे बढ़ चुका है। आज के लोग केवल देखना और जानना नहीं चाहते, वे बदलना चाहते हैं। परिवर्तित युग का सत्य भी नया होता है । आज का रचनात्मक दृष्टिकोण यह है कि मनुष्य श्रम करे, श्रम के द्वारा कमाई हुई वस्तु को भोगे। दूसरों के श्रम पर न जिये, आलसी बन बैठा न रहे, मूल्यांकन की दृष्टि को बदले, श्रमिक को छोटा न माने, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वयं कुछ-न-कुछ पैदा करे। इस दृष्टिकोण की तुलना में पिछला जमाना अवश्य अरचनात्मक रहा है।
कर्मभूमि के आदिकाल में मनुष्य श्रमिक था। आगे चल वह श्रमविमुख हो चला। समाज संगठित हुआ। बुद्धिवाद बढ़ा, साधन बढ़े, मान और अपमान की धारणाएं बनीं। अनुपयोगी वस्तुओं में मूल्य का आरोप हुआ और मनुष्य ने अपने सहज-भाव से मुंह मोड़ लिया। संक्षेप में कहा जा सकता हैसमाजीकरण या संगठनात्मक स्थिति ने मनुष्य को स्वभाव-विमुख बना दिया। यह श्रम से अश्रम की ओर जाने का इतिहास है।
समाजीकरण के अभाव में बुद्धि का वाद नहीं होता। ज्ञान आत्मा का सहज धर्म है। बौद्धिक विकास का क्रम स्पर्धा पर आधारित है। स्पर्धा की भूमि समाज है। उसने बुद्धि को बढ़ाया, बुद्धि ने साधनों का विस्तार किया। भूख एक है, प्यास एक है, किन्तु उन्हें मिटाने के लिए आज अनगिनत साधन हैं। साधन-सामग्री ने मनुष्य को छुटपन और बड़प्पन में बांट दिया। जिसे साधन अधिक सुलभ हों वह बड़ा और जिसे साधन कम सुलभ हों वह छोटा । बड़ा बनने वाला पूजा पाने लगा और छोटा उसे पूजने लगा। इस कृत्रिम भेद से अनावश्यक वस्तुओं में कृत्रिम मूल्य का आरोप हुआ। खान-पान के लिए अनुपयोगी वस्तुएं मूल्यवान् बन गयीं। मनुष्य का मोह श्रृंगार से जुड़ गया। मोह की आंख से मनुष्य ने देखा काम करना छोटी बात है। वह श्रम से अश्रम की ओर झुक गया । रचनात्मक युग समाप्त हो चला।
रचनात्मक और अरचनात्मक ये दोनों एक ही पहिये के दो सिरे हैं। एक ऊपर उठता है, दूसरा नीचे चला जाता है, दूसरा ऊपर आता है, पहला नीचे चला जाता है। ये दोनों मिल दुनिया की गाड़ी को आगे धकेल रहे हैं।
मनुष्य का सहज भाव है कि वह अपने जमाने को सर्वोत्कृष्ट देखना चाहता है। जमाना अपनी गति से चलता है। उसमें कारण-कार्य की नियत परम्पराएं प्रतिफलित होती हैं। आज जो अरचनात्मकता का जमाना है। वह समाजीकरण और उसकी छत्रछाया में पलनेवाली मिथ्या धारणाओंका परिणाम है। जब कभी रचनात्मक युग होगा, वह समूहीकरण और उसके पल्ले पड़ी मिथ्या धारणाओं के विघटन का परिणाम होगा।
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