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________________ 115 अणुव्रत का स्वरूप जब तक अपेक्षामात्र रहती हैं, तब तक व्यक्ति इन्हें पूरी करता चला जाता है। किन्तु जब इनकी पूर्ति में सुख-साधना, आराम और विलास का विशेष भाव जुड़ जाता है, तब ये अपेक्षाएं गौण बन जाती हैं और सुख-साधना मुख्य बन जाती है। यह है सुखवाद। इसकी दिशा में सहज तृप्ति मिट जाती है। अतृप्ति का तांता सा लग जाता है। उपाध्याय विनयविजयजी ने सुखवाद की परम्परा को बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है : प्रथममशनपानप्राप्तिवाञ्छाविहस्तास्तदनुवसनवेश्मालङ्कृतिव्यग्रचित्ताः। परिणयनमपत्यावाप्तिमिष्टेन्द्रियार्थान् , सततमभिलषन्तः स्वस्थतां क्वाश्नुवीरन् । रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, स्त्री, सन्तान, प्रिय-इन्द्रिय-विषयस्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द-इस प्रकार इच्छाक्रम सतत-प्रवाही है। इसमें बहने वाला व्यक्ति महाहिंसा और महापरिग्रह की दिशा में चला जाता है। इस पर नियंत्रण जो है वही व्रत है। व्रती जीवन में इच्छा नियंत्रित हो जाती है। केवल जीवन की अपेक्षा शेष रहती है। व्रत के द्वारा जीवन की दिशा बदल जाने पर व्यक्ति हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण की ओर चल पड़ता है। जीवन-निर्वाह के लिए अल्पहिंसा और अल्पपरिग्रह रहता है, बाकी की कामनाएं धुल जाती हैं। यही कारण है कि व्रत की भावना में सुख का प्रश्न प्रधान नहीं रहता। वहां मुख्य बात हिंसा और परिग्रह के अल्पीकरण की होती है। यही व्रत का आधार है। 5.4 अणुव्रत रचनात्मक है या निषेधात्मक ? कुछ तत्त्व रचनात्मक होकर भी निषेधात्मक होते हैं और कुछ निषेधात्मक होकर भी रचनात्मक होते हैं । युद्ध की तैयारी भाषा में रचनात्मक होती है, किन्तु उसका अर्थ निषेधात्मक होता है । अणुव्रत भाषा में निषेधात्मक है, किन्तु इसका अर्थ रचनात्मक है। जिससे जीवन का निर्माण हो, चरित्र का निर्माण हो, वह रचनात्मक कैसे नहीं होगा? इस आधे शतक से रचनात्मक' शब्द का आसन सबसे आगे बिछा हुआ है। उस प्रयत्न का आज कोई मूल्य नहीं आंका जाता, जो रचनात्मक न हो। अणुव्रतआन्दोलन का मूल्य आंकने वाले कहते हैं-यह बहुत बड़ा रचनात्मक कार्य है। कुछ लोग अणुव्रत को इसलिए मूल्यवान नहीं मानते कि यह रचनात्मक कार्य नहीं है। इसके साथ कोई रचनात्मक प्रवृत्ति जुड़ी हुई नहीं है । आखिर कार्य का मूल्यावान् होना 'रचनात्मकता' पर निर्भर है। अणुव्रत-आन्दोलन है या नहीं, यह बड़ा जटिल प्रश्न है। किन्तु रचनात्मक हुए बिना आज इसकी गति भी नहीं हो सकती। यह रचनात्मक है तो अच्छी बात है। अगर वैसा नहीं है तो इसके संचालकों को इसे वैसा बनाने के लिए जीजान से जुट जाना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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