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________________ 114 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग अभ्युदयवाद का आधार सुखवाद (स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार के) और सुखवाद का आधार जड़वाद है। मौत प्राणी की पूर्ण समाप्ति है। यह जडवाद की पूर्व मान्यता है। इसलिए उसमें जीवन और उसके आधारभूत शरीर का सर्वोपरि महत्त्व है। निश्रेयस् साधना में जीवन और शरीर का महत्त्व नहीं, वहां उनके नियमनसंयम का महत्त्व है। जीवन क्षण-भंगुर और शरीर असार है, उसमें स्थिरता का अंश और सार-भाव इतना ही है कि जितना वह निश्रेयस् का साधन बने। इसलिए अणुव्रत का घोष है- "संयमः खलु जीवनम्"- संयम ही जीवन है। जीना संयम नहीं है, निश्रेयस् की विचारणा में वस्तुतः जो संयम है, वही जीवन है। मनोवैज्ञानिक सुखवाद व्रत का आधार नहीं बन सकता। सुख मिले, दुःख न हो, जीवन बना रहे, मौत न हो- यह प्राणी मात्र की स्वाभाविक मनोवृत्ति है। सुखैषणा और प्राणैषणा से प्रेरित हो वे सुख-सुविधा के साधन जुटाते हैं। सुख-सुविधा में कहीं खलल न पड़ जाये- यह वृत्ति आगे बढ़ती है। उससे संग्रह का भाव आता है। वह मन के बांध को तोड़ डालता है। फिर आवश्यकता की बात गौण हो जाती है। सिर्फ संग्रह के लिए संग्रह-प्रधान बन जाता है। दूसरों के शोषण, उत्पीड़न, दमन आदि सभी कुचेष्टाओं के पीछे यही मनोवृत्ति होती है। सुख पाने और दुःख से बचने की वृत्ति को मनोवैज्ञानिक सुखवाद कहा जाता है। नीतिशास्त्र की दृष्टि से इसे संग्रहवाद कहना चाहिए। अभ्युदय में सुख की कामना छूटती नहीं, इसलिए सामाजिक क्षेत्र में दूसरों को दुःख देकर सुख पाने और दूसरों को मारकर जीने की वृत्ति बुरी है, यह माना गया। निश्रेयस् आनन्दमय है। आनन्द चरित्र का उदात्तीकरण है। सुख पौद्गलिक तृप्ति या पूर्ति है। इसलिए वैयक्तिक जगत् में आनन्दानुभूति के लिए सुख की कामना को बुरा माना गया। शरीर-धारण और जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य अपेक्षाओं को पूरा करना सुखवाद नहीं है। वह आवश्यकता की पूर्ति है। जीवन-निर्वाह की दो प्रधान जरूरतें हैं- कपड़ा और रोटी। रोटी जैसे शरीर की सहज मांग है, वैसे कपड़ा उसकी सहज अपेक्षा नहीं है, फिर भी लज्जा का संस्कार समाज में इतना प्रधान बन गया कि कपड़ा पहली जरूरत बन गया। रोटी के बिना कई दिन काम चल सकता है, पर कपड़े के बिना एक घंटा भी काम नहीं चल सकता। रोटी की खोज में आदमी तभी जा सकता है जबकि कपड़ा पहने हुए हो। भावना का अतिरेक भी हुआ है। बम्बई की बात है। एक दिन मैंने एक भाई से पूछाइस टाई का क्या उपयोग है? उत्तर मिला- कुछ भी नहीं। मैने कहा- फिर इसका प्रयोग क्यों? उत्तर मिला- एक दिन इसे बांधे बिना ऑफिस में चला गया तो अधिकारी ने कहा- टाई न बांधना हो तो नौकरी छोड़ दो। जो कपड़ा आदिकाल में लज्जा, शीत, ताप आदि का त्राण बना, वह विकास पाते-पाते भावना का त्राण बन गया। यह अनर्थप्रयोग है। अर्थ-प्रयोग की दृष्टि से समाज के संस्कारानुसार वह जीवन की पहली जरूरत है, इसमें कोई दो मत नहीं हैं। दूसरी जरूरत रोटी है। तीसरी अपेक्षा है-घर । ये अपेक्षाएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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