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________________ अणुव्रत का स्वरूप 113 निश्रेयस्' के साथ अभ्युदय आता है। वह दूसरों को चोट नहीं पहुंचाता । कोरा अभ्युदय किसी महान् साध्य का प्रासंगिक फल या गौण परिणाम नहीं होता, इसलिए वह शुद्धि की मर्यादा का वाहक नहीं रह सकता। समाज समर्पण और परस्परोपग्रह की प्रयोगभूमि है, इसलिए वह अभ्युदयवादी है। एक-एक व्यक्ति अभ्युदय और निश्रेयस् का संगम-स्थल होता है। व्यक्ति समाज के बन्धन से बिलकुल खुला नहीं होता है तो बिलकुल बंधा भी नहीं होता। समाज की अपेक्षाओं से वह जुड़ा होता है, इसलिए वह अभ्युदयकारी होता है। अपनी आन्तरिक वृत्तियों के शोधन व नियमन में वह समाजमुक्त भी होता है, इसलिए वह अभ्युदयवादी नहीं होता। इस प्रकार प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति आत्म-मोक्ष की मर्यादा में व्यक्ति-शोधन और सामाजिक अपेक्षाओं की स्थिति में अभ्युदयकरण, इन दोनों की सहस्थिति लिए चलता है। यह अभ्युदय और निश्रेयस् का पृथक्करण नहीं किन्तु उनकी मर्यादा का विवेक है। अभ्युदय और निश्रेयस दो न हों तो फिर उनके द्वैत की कल्पना भी व्यर्थ है। यदि वे दो हैं तो उनके स्वरूप दो होंगे। दो स्वरूप वाली वस्तुओं को एक मानना मतिविपर्यय है। अभ्युदय और निश्रेयस् की आराधना का देश-काल की दृष्टि से बंटवारा हुआ। उससे अवश्य ही सम्मोह बढ़ा। अमुक-काल और अमुक क्षेत्र धर्म या निश्रेयस की आराधना का है और अमुक देश, काल अभ्युदय या व्यवहार की आराधना का, इस प्रकार निश्रेयस् और अभ्युदय की साधना का बंटवारा हुआ, वह उचित नहीं है। किन्तु इनके स्वरूप का स्वयंजात पार्थक्य है, वह अकृत्रिम है, इसलिए वह अस्वाभाविक नहीं है। प्रत्येक कार्य निश्रेयस् के लिए हो, यह स्थिति साधना के उत्कर्ष की है। इससे पहले सबकी सब क्रिया निश्रेयस् के लिए नहीं होती। स्वजाति, समाज, राष्ट्र तथा अपर राष्ट्र के अभ्युदय के लिए निश्रेयस् से मेल खाने वाली भी बहुत सारी प्रवृत्तियां होती हैं, उन्हें निश्रेयस् की साधना नहीं कहा जा सकता। इसलिए निश्रेयस् और अभ्युदय का स्वरूप-भेद, साधना-भेद, परिणामभेद स्वयं सत्यकार है। निश्रेयस् की व्याख्या में "जहां तक किसी प्रकार का आचरण इस निश्रेयस् की प्राप्ति में सहायक होता है, वहां तक आचरण को भला कहा जाता है।"4"जो व्यक्ति जितनी दूर तक राग-द्वेष के वश में आता है, वह उतनी दूर तक नैतिक आचरण करने में असमर्थ रहता है। अभ्युदय के मार्ग में भलाई-बुराई की परिभाषा समाज की उपयोगिता-अनुपयोगिता से जुड़ी हुई होती है और वहां राग-द्वेष का मर्यादित आचरण भी निंदनीय नहीं समझा जाता । 1. आत्मिक-उत्थान। 2. आर्थिक या सामाजिक उत्थान। 3. आपसी सहयोग। 4. नीतिशास्त्र, पृ. 1681 5. नीतिशास्त्र, पृ. 168 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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