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________________ 112 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग प्रवृत्तियों से बाधा पहुंचाने वाले सभी प्राणी अपराधी की कोटि में आ जाते हैं। अपराध की तात्कालिक संभावना से अपराधी का चित्र उभर आता है। जैसे कोई व्यक्ति जंगल में जा रहा है। सामने से शेर आता हुआ दिखायी दिया। शेर द्वारा आक्रमण संभावित है। आक्रमण होने के बाद मनुष्य संभल नहीं सकता। इसलिए वह उसके आक्रमण से पहले ही अपना बचाव करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है। इस प्रकार की घटनाओं में आक्रमण किए बिना भी संभावित आक्रमणकारी अपराधी बन जाता है। आक्रमण और संभावित आक्रमण अथवा अनिष्ट- ये दोनों स्थितियां अपराध की स्थिति का निर्माण कर देती हैं । आक्रमण की कल्पना और सुदूर अतीत में हुए अपराध का प्रतिशोध- ये दोनों स्थितियां संकल्पी हिंसा के अन्तर्गत आ जाती हैं । अतः अणुव्रत की साधना करने वाला व्यक्ति ऐसे कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। व्रत का आधार नीतिशास्त्र के अनुसार "नैतिकता व्यक्ति के जीवन से सम्बन्ध रखती है। उसका मुख्य उददेश्य व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता प्रदान करना है । राजनीति का ध्येय सामाजिक भलाई की वृद्धि करना है।" ग्रीन महाशय का कथन है कि मनुष्य को "आत्म-कल्याण का विचार पहले रखना चाहिए, पीछे उसे समाज की बातों की परवाह करनी चाहिए। जो व्यक्ति आत्म-कल्याण की चेष्टा करता है, वह समाज का सच्चा कल्याण अपने-आपही कर देता है।1ऊपर की पंक्तियां व्यक्तिवादी विचारणा की प्रतीक हैं। व्यक्तिवाद स्वार्थपरता है, इसलिए वह समाज को नहीं भाता। नैतिकता और व्यवहार की रेखाएं दो दिशाओं में चलती हैं। नैतिकता के लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता आवश्यक है किन्तु राजनीति का आधार वैयक्तिक स्वतंत्रता का समाज के लिए समर्पण है। नीतिशास्त्र का ध्येय मनुष्यों को वैयक्तिक कल्याण प्राप्त करने में सहायता देना है और राजनीति का ध्येय सामाजिक भलाई को प्राप्त करना है। राजनीति की दृष्टि बहिर्मुखी होती है और नीतिशास्त्र की दृष्टि अन्तर्मुखी। बहिर्मुखी दृष्टि से देखने पर व्यक्तिवाद स्वार्थपरता से अधिक मूल्यवान् नहीं लगता पर सही माने में यह स्वार्थपरायणता नहीं है। यह आत्मनिष्ठता है। अपना कल्याण किये बिना दूसरों के कल्याण की बात थोथी होती है। वैयक्तिक कल्याण की मर्यादा को न समझने वालों से समाज का उच्चतम कल्याण नहीं हुआ है। वैसे व्यक्तियों द्वारा सम्भव है समाज को बाहरी सफलताएं मिली हों, नैतिकता की दृष्टि से वे मूल्यवान् नहीं हैं। "नैतिक प्रयत्न द्वारा मनुष्य बाहरी पूर्णता प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता वरन् आन्तरिक पूर्णता प्राप्त करने की चेष्टा करता है और यह पूर्णता हेतु की पवित्रता से ही आती है, बाह्म सफलता से नहीं ।' 1. नीतिशास्त्र पृ. 42, 43 । 2. नीतिशास्त्र पृ. 167। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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