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________________ अणुव्रत का स्वरूप 111 अनिवार्यता है, परिवार, समाज और राष्ट्र के साथ सम्पर्क है, वहां व्यवहार जगत् में व्यक्ति को कुछ ऐसे काम करने पड़ते हैं, जो अहिंसा की अखण्डता में बाधक हैं। जिन व्यक्तियों का जीवन अहिंसा की दृष्टि से परिपूर्ण है वे बाह्य व्यवहार में भी पूर्ण जागरूक रहते हैं, किन्तु जिनकी अन्तर्-वृत्तियों में चैतन्य का अपेक्षित विकास नहीं है, उनका बाह्य व्यवहार भी उस सीमा तक अप्रमाद-शून्य होता रहता है। __ वह व्रत अन्तर्-वृत्तियों के जागरण के लिए है। जिस व्यक्ति की वृत्तियां जागृत हैं, वह अंश मात्र भी हिंसा नहीं कर सकता। उसकी दिशा हिंसा के निर्मूलन की दिशा है। उसका आदर्श है- मैं हिंसा नहीं करूंगा अथवा मैं पूर्ण अहिंसक रहूंगा । इस आदर्श तक पहुंचने के लिए व्यक्ति हिंसा के अल्पीकरण की दिशा में प्रस्थान करता है, किन्तु देह-धारण की अनिवार्यता के लिए भोजन, वस्त्र, मकान आदि उपकरण सामग्री प्राप्त करने हेतु उसे हिंसा-क्षेत्र में प्रवेश करना पड़ता है। हिंसा में प्रवृत्त होने पर भी उसका संकल्प रहता है कि मैं स (चलने-फिरने वाले) जीवों की हिंसा नही करूंगा। वनस्पति, भूमि, पानी अग्नि और हवा की हिंसा किए बिना जीवन चल नहीं सकता। अतः मैं अपनी दिशा में स्थावर जीवों की हिंसा का अपवाद रखता हूं। __हिंसा में प्रवृत्त होने की पहली भूमिका है- देह धारण की अनिवार्यता और दूसरी भूमिका है- जीवन की सुरक्षा। सुरक्षा के लिए आक्रमणकारी प्राणियों और मनुष्यों से अपना बचाव करने की अपेक्षा होती है। इसलिए अहिंसा की ओर गति करने वाला व्यक्ति दूसरा संकल्प करता है- मैं निरपराध प्राणियों का वध नहीं करूंगा। कभी-कभी अनजान में प्राणी-वध हो जाता है। इसलिए इस व्रत की भाषा के साथ यह भी जुड़ जाता है कि निरपराध प्राणियों का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा। कुछ व्यक्ति सक्रिय रूप में अनिष्टकारी होते हैं और कुछ व्यक्ति अनिष्ट करने का अवसर देखते रहते हैं। इन दोनों श्रेणियों के व्यक्ति अपराधी होते हैं। इनसे अपनी सुरक्षा करने के लिए हिंसा की अनिवार्यता उपस्थित हो जाती है। किन्तु निरपराध व्यक्ति की हिंसा न करने का संकल्प लेने वाला अहिंसा की दिशा में प्रस्थान कर देता है। चूंकि शरीर और जीवन के प्रति उसका ममत्वभाव जुड़ा रहता है, अतः वह अहिंसा को खण्डशः स्वीकार करता है। अहिंसक व्यक्ति के मन में हर हिंसा के प्रति अशक्यता का अनुभव होना चाहिए। यह अनुभव ही उसे अखंड अहिंसा तक ले जा सकता है। हर व्यक्ति शरीर और जीवन के प्रति सर्वथा निर्ममत्व की स्थिति में नहीं जा सकता। इसलिए अहिंसा के क्रमिक विकास का मार्ग सुझाया गया है। प्रश्न- सामाजिक व्यक्ति आक्रामक या अपराधी व्यक्ति का अपराध सुरक्षा की दृष्टि से क्षम्य नहीं मानता किन्तु अपराध की संभावना से किसी व्यक्ति या प्राणी का प्राणवध कोई करे, वह इस नियम की सीमा में है या नहीं? उत्तर- अतीत और वर्तमान में आक्रान्ता तथा भविष्य में अपनी आक्रामक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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