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अणुव्रत का स्वरूप
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जैन परम्परा में श्रावको के व्रतों को ही अणुव्रत कहा जाता है। अणुव्रत' शब्द जैनागमों से लिया गया है पर यहां इसका प्रयोग 'छोटे-छोटे व्रत'- इस सामान्य अर्थ में किया गया है।
प्रश्न- जो व्यक्ति अणुव्रती बनते हैं, वे जीवन-शुद्धि में विश्वास करने वाले होते हैं। क्या उनका यह विश्वास उनके जीवन-व्यवहार में प्रतिबिम्बित है ?
उत्तर- अणुव्रती व्यक्तियों के व्यवहार जीवन-शुद्धि के प्रतीक हों, यह बहुत आवश्यक है। किन्तु हर व्यक्ति लम्बे समय तक एक गति से नहीं चल पाता । कुछ व्यक्ति अपने व्यवहारों से जीवन-शुद्धि के विश्वास को पुष्ट करते हैं और कुछ व्यक्ति प्रतिगति कर लेते हैं । मन की प्रबलता और दुर्बलता प्रगति और प्रतिगति में निमित्त बनती है । प्रगति सबल मनोबल की प्रतीक है। जो मनुष्य किसी भी स्थिति में मूलस्थिति से पीछे न हटने का संकल्प लेकर चलता है, वह प्रतिगति नहीं करता। किंतु जिसका मानसिक संकल्प दुर्बल होता है, वह बार-बार पीछे मुड़कर देखता है और अनुस्रोत में बहने के लिए उद्यत हो जाता है। प्रतिस्रोतगामी व्यक्ति ही अपना उत्कर्ष कर सकता है। इसीलिए आगम सूत्रों में कहा गया है
अणुसोय पट्ठिए बहु जणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं। पडिसोयमेव अप्पा,
दायव्वो होउ कामेणं। सारा संसार अनुस्रोत में बह रहा है पर जो व्यक्ति अपना अपूर्व निर्माण करना चाहता है (मुक्त होना चाहता है), प्रतिस्रोतगामिता के लक्ष्य से प्रतिबद्ध है, उसे स्वयं को प्रतिस्रोत में ही मोड़ना चाहिए। प्रतिस्रोतगामिता में बाधाएं बहुत आती हैं। इसलिए कुछ व्यक्ति विचलित हो जाते हैं। विचलित व्यक्तियों के व्यवहार उनके विश्वास के अनुरूप नहीं हो सकते । जो व्यक्ति दृढ संकल्पी होते हैं और अपने लक्ष्य से प्रतिबद्ध रहते हैं, उनके व्यवहार उनके विश्वास के साक्षी बन जाते हैं। अतः हमें यह मानकर चलना चाहिए कि कुछ व्यक्तियों के व्यवहार में उनका विश्वास प्रतिबिम्बित है और कुछ व्यक्ति अपनी दुर्बल मनोवृत्ति के कारण विश्वास और अविश्वास की दोहरी भूमिका निभा रहे हैं।
1. श्रमणों की उपासना और व्रतों का आचरण करने वाला गृहस्थ श्रावक कहलाता है।
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