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5. अणुव्रत का स्वरूप
5.1 अणुव्रत दर्शन अणुव्रत नैतिकता का वह महत्वपूर्ण आयाम है जिर जीवन को सफल बनाया जा सकता है। सांसारिक व्यामोह औ दौड़ ने मानव जीवन को नरक बना दिया है। ऐसी विकट एवं भयावह स्थिति में मानव जीवन को नवप्रभात की प्रथम किरण का दर्शन कराने के लिए उद्यत है अणुव्रत। अणुव्रत के बारे में जानकारी करने के पूर्व व्रतों को समझना आवश्यक प्रतीत होता है।
चरित्र-विकास के लिए किये जाने वाले संकल्प का नाम अणुव्रत है।
अनन्त आकाश है और अपार पदार्थ । मन पर कोई नियंत्रण नहीं है। वह दौड़ता है, इंद्रियां दौड़ती हैं। यह खुली दौड़ मनुष्य को भोगी, हिंसक और क्रूर बना देती है।
क्रूरता से अशान्त हो मनुष्य ने साध्य के बारे में सोचा। आखिर उसने जान लिया कि जीवन का साध्य शान्ति है।
शान्ति को पाने के लिए उसने क्रूरता को छोड़ना चाहा। क्रूरता को छोड़ने के लिए हिंसा, हिंसा को छोड़ने के लिए भोग और भोग को छोड़ने के लिये इंद्रिय और मन की निरंकुशता को छोड़ने का अभ्यास किया। वह अभ्यास आत्मा की सहज पवित्रता और उसे अपवित्र बनाने वाली मन की चंचलता के बीच अवरोध बन गया, इसलिए हमारे आचार्यों ने इसे व्रत कहा। व्रत अणु क्यों?
व्रत अपने आप में पूर्ण होता है, किंतु आचरण की क्षमता समान नहीं होती. इसलिए उसके दो स्तर किये गये हैं- महाव्रत और अणुव्रत। असीम रूप में स्वीकार किये जाने वाले व्रत महाव्रत और सीमा के साथ स्वीकार किये जाने वाले व्रत अणुव्रत कहलाते हैं।
स्वरूप की दृष्टि से व्रत. एक है। व्रत का काम है- आत्मा और उसे अपवित्र बनाने वाली दुनिया के बीच में दीवार खड़ी करना। पर दीवार कमजोर भी हो सकती है और मजबूत भी। अभ्यास के आरम्भ में वह उतनी मजबूत नहीं बनती जितनी कि अभ्यास करते-करते युगों बाद बनती है। प्रत्येक आत्मा मोहाणुओं के आकर्षण से खिंची रहती है। वह उन्हें विकार की ओर खींचता रहता है। उस आकर्षण के खिंचाव से बचने के लिए जो अधिक सफल होता है वह विकार से
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