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________________ अहिंसा और शान्ति है। अनित्य को नित्य मान लिया, अशाश्वत को शाश्वत मान लिया। यह भी मिथ्यादर्शन है। यह मिथ्यादर्शन बदलना चाहिए, यह धारणा बदलनी चाहिए। स्वभाव बदलता है और जो भावात्मक स्वास्थ्य प्राप्त नहीं है, वह पाया जा सकता है। उसमें विकास किया जा सकता है। यह गतिशील भावना रही तो संभावना उज्ज्वल बन जाएगी और स्थिर बन गए तो कोई संभावना शेष नहीं रहेगी। संकल्प स्वभाव परिवर्तन का साधना का अर्थ है गतिशीलता। निरंतर गति और निरंतर परिवर्तन की बात। जो परिवर्तन की बात नहीं सोचता, वह शायद अध्यात्म में प्रवेश पाने का अधिकारी ही नहीं है। उस व्यक्ति में पहली बात यह होनी चाहिए कि मैं अशुभ योग की प्रवृत्तियों और आदतों को बदलना चाहता हूं। इसलिए अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहता हूं। यह अर्हता आए तो शायद एक नया रूप निखरेगा। पुरानी भाषा थी- संसार में आग लग रही है इसलिए मैं साधु बनना चाहता हूं, साध्वी बनना चाहती हूं। जन्म-मरण की लाय लग रही है यह भी एक सचाई है, वास्तविकता है। आज हम दूसरी भाषा में सोचें। वह भाषा होगी- मैं अपने पुराने स्वभाव को बदलना चाहता हूं और नए स्वभाव का निर्माण करना चाहता हूं इसलिए अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैं पुराने संस्कारों से मुक्ति पाना चाहता हूं और नए संस्कारों का निर्माण करना चाहता हूं, इसलिए अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैं अशुभ योग की प्रवृत्तियों को कम करना चाहता हूं और शुभ योग की प्रवृत्ति का जीवन जीना चाहता हूं, इसलिए अध्यात्म में प्रवेश पाना चाहता हूं। यह सम्यक्दर्शन स्पष्ट हो जाए तो अध्यात्म में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है और वही व्यक्ति भावनात्मक स्वास्थ्य का जीवन जी सकता है। सबसे ज्यादा मूल्यवान भावनात्मक स्वास्थ्य बहुत महत्त्वपूर्ण है भावनात्मक स्वास्थ्य । हमने जीवन को तीन भागों में बांट दिया- एक शारीरिक जीवन, एक मानसिक जीवन और एक आध्यात्मिक जीवन। शारीरिक जीवन से ज्यादा मूल्यवान है मानसिक जीवन और उससे ज्यादा मूल्यवान है भावनात्मक जीवन। यह भावनात्मक जीवन भावनात्मक स्वास्थ्य पर निर्भर है। उसका विकास कुछ दृष्टिकोणों, कुछ मान्यताओं को बदल कर ही किया जा सकता है। इस प्रकार स्वभाव शोधन की प्रक्रियाओं को गम्भीरता से जीवन में उतारकर भावनात्मक स्वास्थ्य को ठीक रखकर सत्यं शिवं सुन्दरम् की त्रिपथगा प्रवाहित कर सकते हैं। 4.4 अहिंसा और शान्ति भगवान् महावीर ने कहा- सच्चं भयवं- सत्य ही भगवान् है। जहां सत्य है, वहां अहिंसा है। गांधीजी भी 'ईश्वर सत्य है' की मान्यता पर जोर न देकर 'सत्य ही ईश्वर है' का पोषण किया। उन्होंने सत्य को साध्य माना और इसकी प्राप्ति के लिए अहिंसा को ही एकमात्र उपयोगी साधन स्वीकार किया है। जहां सत्य है, वहां शान्ति है। सत्य, अहिंसा और शन्ति- तीनों परस्पर जुड़े हुए हैं, इन्हें कभी पृथक्नहीं किया जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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