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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग कहते कि साधु बना है मेरे पिता को मारकर, मेरे भाई को मार कर। जहां भी जाते गालियों की बौछार मिलती। कितनी अवज्ञा और कितनी अवहेलना ! यह बात तब होती है जब अतीत हावी होता है। अगर अध्यात्म की भूमिका होती तो महावीर साधु बनते ही नहीं। अगर अध्यात्म की भूमिका होती तो कभी संत बनते ही नहीं। अध्यात्म की भूमिका में कहा जाएगा-अशुभ योग में से शुभ योग में आ गया, अशुभ भाव में से शुभ भाव में आ गया और स्वभाव बदल गया। जिस व्यक्ति ने यह सोच लिया कि अब मैं वह नहीं करूंगा, जो मेरे द्वारा प्रमादवश पहले किया गया था। 'फिर नहीं करूंगा" जिसकी मनोदशा ऐसी बन गई, उसका स्वभाव बदल गया। सामाजिक भूमिका में अगर स्वभाव बदलता है तो सामाजिक लोग इसे स्वीकार नहीं करेंगे। अध्यात्म का स्वीकार है-स्वभाव बदल सकता है और स्वभाव के बदल जाने पर व्यक्ति बदल जाता है। व्यक्ति जिस पर्याय में जी रहा था, वह पर्याय बदल गया। व्यक्ति मर गया। वह जो था, वह तो है ही नहीं। स्वभाव एक पर्याय है
विमर्श का बिन्दु है- स्वभाव ध्रुव है या एक पर्याय है ? अगर ध्रुव है तो बदलने की आवश्यकता ही नहीं है और प्रयत्न करने पर भी बदला नहीं जा सकता। जैसा है वैसा ही रहेगा। त्रिपदी है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की । स्वभाव ध्रौव्य के साथ जुड़ता है तो बदलने का प्रयत्न करना भी हमारी समझदारी नहीं और वह बदलेगा भी नहीं। अगर स्वभाव पर्याय है तो पर्याय का अर्थ होगा उत्पन्न होना और व्यय हो जाना। पर्याय से हम चिपके कैसे रह सकते हैं। हम कैसे कह सकते हैं कि मेरा तो ऐसा ही स्वभाव है यह बदलेगा नहीं ? जो आदत पड़ गई है, वह अब छूटेगी नहीं। इस त्रिपदी के सिद्धांत को जानने वाला कोई भी यह कह नहीं सकता।
मनष्य एक पर्याय है। मनुष्य नाम का कोई भी द्रव्य नहीं है। वह एक पर्याय है। मनुष्य, पशु, पक्षी- ये सब पर्याय हैं। पैदा हुए हैं और नष्ट हो जाएंगे। मनुष्य जीवन भी एक पर्याय है। हमारा स्वभाव में कौन-सा शाश्वत सत्य आ गया कि बदेगा ही नहीं। स्वभाव बदलल सकता है पर पहले हमारा दर्शन सम्यक् होना चाहिए। जब दर्शन ही सम्यक् नहीं है तो फिर आचरण और व्यवहार की बात ही कहां से आएगी। न जाने कितने लोग यह मान बैठे हैं कि मेरा स्वभाव नहीं बदलेगा, मेरी आदत नहीं बदलेगी। जो लोग धर्म के क्षेत्र में,साधना के क्षेत्र में आ गए, उनकी भी धारणा यही है कि मेरी आदत तो बदलेगी ही नहीं। साधु जीवन में आ जाने के बाद भी कभी-कभी ऐसी धारणा बना लेते हैं कि अब तो यह आदत बदलने की नहीं है। बड़ा आश्चर्य होता है ! उन्होंने स्वभाव को भी शाश्वत सत्य मान लिया है, एक अस्तिकाय मान लिया। उन्होंने यह मान लिया कि मेरा स्वभाव ऐसा था, है और रहेगा। कितना मिथ्यादर्शन है। जो अशाश्वत है उसे शाश्वत मान लेना मिथ्या दर्शन
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