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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग प्रश्न है अहिंसा की प्रतिष्ठा का
अहिंसा की बात तब तक फलित नहीं होगी जब तक मनुष्य के जीवन में संयम को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। मुझे आश्चर्य है कि अहिंसा की बात करने वाले भी इच्छा संयम पर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इच्छाओं की वृद्धि से हिंसा को पल्लवन मिला है।जब तक इच्छा का संयम नहीं होगा, अहिंसा की बात का कोई सार्थक परिणाम नहीं आ सकेगा।
आर्थिक विषमता आज की मुख्य समस्या है। व्यक्तिगत स्वामित्व असीम हो रहा है। व्यक्तिगत स्वामित्व का न होना व्यावहारिक नहीं है किन्तु व्यक्तिगत स्वामित्व का असीम होना अन्याय है। अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए अहिंसा से पहले परिग्रह के सीमांकन पर ध्यान देना आवश्यक है।
अहिंसा की प्रस्थापना में एक महत्त्वपूर्ण आयाम है- सुविधावादी दृष्टिकोण बदले। हम प्रदूषण से चिन्तित हैं , त्रस्त हैं । सुविधावादी दृष्टिकोण प्रदूषण पैदा कर रहा है, उस पर हमारा ध्यान ही नहीं जा रहा है। समाज सुविधा को छोड़ नहीं सकता किन्तु वह असीम न हो- यह विवेक आवश्यक है। यदि सुविधाओं का विस्तार निरन्तर जारी रहा तो अहिंसा का स्वप्न यथार्थ में परिणत नहीं होगा। हिंसा : कारणों की खोज
सूर्य से अंधकार बरसता है, यह बहुत आश्चर्य की बात है। इससे भी बड़ा आश्चर्य है सामाजिक जीवन में हिंसा का विस्तार होना। सामाजिक जीवन की आधारशिला है- परस्परता का समझौता । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का सहयोग करे, कोई किसी को बाधा न पहुंचाए। आचार्य उमास्वाति ने दर्शन जगत् को एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया। समाज दर्शन के क्षेत्र में भी उसका बहुत मूल्य है। उनका सूत्र यह है- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'- परस्पर एक दूसरे को सहारा देना। यह जीव का आचरण रहा है। समाज का अर्थ है संबंधों का जीवन । शान्तिपूर्ण संबंधों में समाज फलता-फूलता है। तनावपूर्ण संबंधों में वह मुरझा जाता है। व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, राष्ट्र और राष्ट्र के बीच तनाव न हो, यह हमारी भावना है। यदि तनाव है तो उसे कैसे मिटाया जाए, उसके उपाय खोजने हैं। __ हिंसा के कारणों को पांच वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है
+ मानसिक तनाव + निषेधात्मक दृष्टिकोण + मानसिक चंचलता + नाड़ीतंत्रीय असंतुलन + जैव-रासायनिक असंतुलन।
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