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बन जाएगा तो फिर आगे क्या करेगा ? आत्मनिरीक्षण करें साधना कोई वर्ष, दो वर्ष की प्रक्रिया नहीं है। इसमें तो पूरा जन्म लग जाता है। एक जन्म नहीं, अनेक जन्म खप जाते हैं। हमारी प्रवृत्ति यह है कि हम तत्काल फल चाहते हैं। एक सामान्य-सी शारीरिक बीमारी की चिकित्सा में भी बहुत समय लग जाता है और हम चाहते हैं कि मन की बीमारी, कुछ क्षणों में दूर हो जाए। यह कैसे संभव है ? वीतरागता की साधना सबसे कठिन और दुरूह साधना है। उस मुकाम तक पहुंचना कोई हंसी-मजाक नहीं है, चुटकी बजाते ही हो जाने वाला काम नहीं है। हम यह देखें-भावशुद्धि में कितना अन्तर आया। स्वयं का भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए-मैं इतने दिन से प्रयोग कर रहा हूं, मुझमें कहीं कोई अन्तर आया या नहीं। अगर नहीं आया तो क्यों नहीं आया ? अगर आया तो फिर आगे इसमें और विकास करना है। यह क्रमिक विकास की प्रक्रिया है।
अभय का सूत्र यह भावविशुद्धि हमारे व्यक्तित्व-निर्माण में बहुत सहायक बनती है और इसके लिए सुन्दर आलम्बन बनता है दर्शनकेन्द्र, ज्योतिकेन्द्र और शान्तिकेन्द्र का ध्यान । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-भावविसोहि काउण निवभए भवइ-अभय बनने का सूत्र है भावविशुद्धि। आचार्य भिक्षु ने भावविशुद्धि की जो साधना की, उसमें अनेक बार मृत्यु के भय सामने आए। उन्हें कोई डर नहीं लगा । जयाचार्य ने ठीक लिखा-मरणधार सुध मग लह्यो। सुध मग का मतलब है भावविशुद्धि । मैं अनेक बार एक पंक्ति को गुनगुनाता
मौत से डरता नहीं मैं, मौत मुझसे डर चुकी है।
मौत से मरता नहीं मैं, मौत मुझसे मर चुकी है।। व्यवहार विलक्षण बने जब यह स्थिति बनती है तब भावविशुद्धि आती है। व्यक्तित्व-निर्माण के
७० : नया मानव : नया विश्व
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