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समाधान-सूत्र समाधान यह है-परिवर्तन की प्रक्रिया की ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। कैसे बदलना चाहिए ? कैसे व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहिए ? इस दिशा में चिन्तन कम है। शिक्षा में इसके समावेश की जरूरत भी नहीं समझी गई। प्राचीन काल में जो विद्यार्थी ज्यादा उद्दण्ड होता था, उसे मुर्गा बना देते थे, पीट देते थे, गोडा-लकड़ी डाल देते थे। ऐसा करने से भी व्यक्तित्व-निर्माण में मदद नहीं मिलती थी। आजकल मारने-पीटने की बात बहुत कम हो गई है। क्योंकि विद्यार्थी इतने तेज हो गए हैं कि पीटने वाले को भी वे पीटने के लिए तैयार रहते हैं। शिक्षक शिकायत कर देते हैं या फिर उपेक्षा कर देते हैं, यह सोच लेते हैं-चलो, जैसा है, वैसा है, अपने को क्या ? इससे निर्माण नहीं होता। जिसे व्यक्तित्व का निर्माण करना होता है, उसे सर्वांगीण दृष्टि से विचार करना होता है कि खराबी कहां है। गुरु को भी चिकित्सक कहा गया है। वह चिकित्सा करता है, निदान करता है कि खराबी कहां है और फिर उस खराबी का इलाज करता है। संतुलन के प्रयोग व्यक्तित्व-निर्माण के दो घटक हैं-ग्रन्थितंत्र और नाड़ीतंत्र । प्रेक्षा के प्रयोग ग्रंथितंत्र को संतुलित बनाते हैं। कुछ विद्यार्थी बहुत ज्यादा डरपोक थे। उन्हें तैजस केन्द्र पर ध्यान कराया गया, डर मिट गया। एक युवक ने कहा-मुझे इतना डर लगता है कि किसी के सामने जाते ही कांपने लगता हूं, पूरी बात नहीं कह पाता हूं। आपके सामने खड़ा हूं तो भी डर लग रहा है। वह करोड़पति व्यापारी का लड़का था, व्यवसाय के सिलसिले में तमाम लोगों से उसे संपर्क करना पड़ता था किन्तु किसी से बात करने में उसे झिझक होती थी। उसने प्रयोग किया। स्थिति बदल गई। उसने भावपूर्ण स्वरों में कहा-मेरी सारी समस्या सुलझ गई है। अब मैं लोगों की आंख से आंख मिलाकर निडर होकर बात करता हूं। मुझे कोई कठिनाई नहीं है।
जब हमारा तैजस केन्द्र (नाभिकेन्द्र), जो प्राण ऊर्जा का उत्पादक केन्द्र है, सक्रिय हो जाता है तो भीरुपन अपने आप समाप्त हो जाता है। ग्रन्थितंत्र के संतुलन का एक प्रयोग है चैतन्य केन्द्र पर ध्यान । यह व्यक्तित्व-निर्माण
व्यक्तित्व का निर्माण : ६७
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